February 28, 2010

होली की बहुत बहुत शुभकामनाये


"विचारों का दर्पण" की ओर से आप सभी ब्लोगर्स को होली की बहुत


बहुत
शुभकामानाये यह अलग अलग रंगों का त्योहार आप सभी के




जीवन
में अलग अलग सुख,शांति और खुशियाँ ले कर आये।



February 27, 2010

हाँकी का महासंग्राम......

क्रिकेट के छक्के चौके से दूर अब वक़्त आ गया है, हाँकी का । 28 फरवरी 2010 को हाँकी का महासंग्राम शुरू हो जायेगा और जिसके साथ शुरू हो जाएगी एक जंग जिस पर लाखों खेल प्रेमी नजर लगाये बैठे हैं । यह महासंग्राम सिर्फ हाँकी का नहीं है, ये महासंग्राम है, भारतीय हाँकी के अस्तित्व का, यह वही हाँकी है जिसने ध्यानचंद, कैप्टेन रूपसिंह, अजीतपाल सिंह, उधम सिंह, अशोक कुमार, परगट सिंह, धनराज पिल्लई तक कई महान खिलाडयों को जन्म दिया। यह वही हाकी है जिसने हमारे लिए ओलंपिक में 8 स्वर्ण पदक जीते है। यह वही स्वर्णिम युग था हमारी हाँकी का, जिसमे सारी दुनिया ने भारतीय हाँकी का लोहा मान लिया। सन 1928 से 1956 तक तो भारतीय हाँकी अजेय रही थी और लगातार 6 ओलंपिक स्वर्ण पदक जीते थे। आज भी जब हम अपने हाकी .इतिहास को देखते है तो हमें गर्व होता है कि धन्य है हम कि हमारे भारत ने हाँकी में 8 स्वर्ण पदक जीते है। लेकिन आज वही हाकी जिसने ध्यानचंद को जन्म दिया आज वो अपने वजूद कि लड़ाई लड़ रही है आज आये दिन कोई ना कोई विवाद इसके साथ जुड़ जाता है। ये खेल कहाँ से कहाँ तक पहुच गया है, आज भारतीय हाँकी अपने स्वर्णिम युग से धरातल पर आ गयी है। अब तो दूर दूर तक याद ही नहीं रहता कि कब हमारी हाकी टीम ने कोई बड़ी प्रतियोगिता जीती हो। आज हाकी कि ये दुर्दशा हो गयी है कि आज खिलाड़ियों को देने के लिए पैसे नहीं है। हाँकी का महासंग्राम सिरपर खड़ा है और हमारे हाकी के प्रसाशक सरे मुद्दे सुलझाने में लगे है। रोज नए - नए विवाद आ रहे है, कभी कोच कह रहा है कि कप्तान ये होगा और हाकी इंडिया कह रही है कि कप्तान ये होगा और पता नहीं कितने विवाद इस खेल के साथ है जो लोगों को पता नहीं। फिर भी इन सब विवादों के वावजूद भी हमारे खिलाड़ी हिम्मत से इस महासंग्राम के लिए तैयार है । ये महासंग्राम सिर्फ एक विश्वकप नहीं है और ना ही ये एक ट्राफी है बल्कि अब ये एक वजूद कि लड़ाई है जो की आने वाले वक़्त में हाँकी कि तस्वीर और तकदीर तय करेगी। इस महासंग्राम में वैसे तो और भी देश है ,पर जिसकी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है वो है भारत की क्यूंकि कुछ समय पहले ही हमारी हाँकी ने ओलंपिक में ना खेल पाने का जो दाग भारतवासियों को दिया है वो अभी तक धुल नहीं पाया है। आज यह मौका है हमारे खिलाड़ियों के लिए जिनके ऊपर दाग लगा हुआ है , उसे धोने का ये लड़ाई सिर्फ अपने कलंक को मिटने के लिए नहीं है ये लड़ाई है भारतीय हाकी को फिर से अपना वही पुराना रुतबा दिलाने कि जिसकी चमक से पूरी दुनिया कि हाँकी चमकती थी। इस महासंग्राम के लिए भारतीय खिलाड़ियों को मेरी तरफ से बहुत सारी शुभकामनायें, आज पूरा देश और भारतीय हाँकी उनकी तरफ एकटक लगा कर देख रही है देश देख रहा है कि ये खिलाड़ी हमारे कलंक को धोये जो ओलम्पिक ना खेल पाने से लगा है, और हाकी देख रही है इस आशा से कि ये खिलाड़ी एक बार फिर से मुझे वही रुतबा दिलाएंगे जिसके लिए मैं जानी जाती थी। हम सभी कि उम्मीदें इन खिलाड़ियों पर लगी है। मैं संपूर्ण भारतवासियों से एक निवेदन करना चाहता हूँ कि वो सभी इस महासंग्राम को देखे क्यूंकि ये महासंग्राम हमारी हाँकी का है। और इसे फिर से अपना पुराना रूप हासिल करने में अपना सहयोग दे और इन खिलाड़ियों के लिए प्रार्थना करे जो इसके लिए अपना सब कुछ लगा दे रहे है। इस अस्तित्व की लड़ाई में मैं अपनी हाकी टीम को बहुत सारी शुभकामनायें देता हूँ।
लेखक - पंकज सिंह
प्रस्तुतकर्ता - देवेश प्रताप

February 26, 2010

वस्तु का प्रचार या स्त्री का .......

देवेश प्रताप

आज आधुनिकता के दौर में , सबसे ज़्यादा क्रांति आई तो वो संचार में , संचार के माध्यम धीरे धीरे अपने पैर पसारते गए जिसमें नई -नई तकनीक शामिल होती गयी किसी भी ''वस्तु'' के बारें में लोगों तक जानकारी पहुँचाने का कार्य , संचार माध्यमों से शुरू हुआ , ''प्रचार '' कि उत्पति यही से हुई यदि ''प्रचार'' जैसा शब्द होता तो शायद बहुत कुछ होता आज के युग में किसी भी ''चीज़'' का प्रचार करना बहुत आसान हो गया हैकुछ वर्ष पहले यदि प्रचार टी.वी पर आया करते थे तो ये होता था कि कितनी जल्दी प्रचार ख़त्म हो क्यूंकि तब के प्रचार बहुत साधारण तरीके प्रस्तु किये जाते थे , परन्तु जैसे -जैसे समय बदलता गया ......प्रचार में भी बदलाव आता गया और अब तो कुछ प्रचार ऐसे बन गए कि उन्हें देखने का मन बार बार करता है , किसी भी वस्तु का प्रचार आज के समय में सबसे ज्यादा स्त्रियाँ ही करती है आकर्षण का केंद्र मानी जाने वाली नारी , किसी भी वास्तु का प्रचार कम, नारी का प्रचार ज्यादा होने लगा है , चलिए ये माना कि ...क्रीम , तेल ,शैम्पू इत्यादि वस्तुओं का प्रचार कोई स्त्री करें तो एक तुक बनता है , परन्तु किसी ....मोटरकार के टायर , सीमेंट , पान मसाला , इंजन के तेल , या पुरुष के अन्तःवस्त्र के प्रचार में एक कामुकता के अंदाज में किसी स्त्री कि क्या आवशयकता आज के समय में ऐसे प्रचार टीवी या पेपर में देखने को मिलते है जिसमें साफ़ दिखाई देता है कि इस प्रचार में ''नारी'' के जिस्म का प्रचार किया जा रहा है .......मुझे तो ऐसे प्रचार बेतुके लगते हैं
आज - कल टीवी पर एक सीमेंट का प्रचार आता है ......प्रचार कुछ इस तरह से है '' एक लड़की (swim costume )पहन कर समन्दर से बहार आती है ....धीरे -धीरे जब वो स्क्रीन में एकदम समाहित होने को होती है .......तभी स्क्रीन पर एक सीमेंट का नाम लिख कर आता है और कुछ वाइस ओवर भी होता है ''.......मैं तो अभी तक इस प्रचार का मतलब नहीं समझ पाया कि उस लड़की और सीमेंट का क्या .........यदि आप लोगो ने ये प्रचार देखा हो ........और इसका कुछ मतलब समझा हो तो हमें अवश्य बतलायें ..........जिन्होंने देखा हो तो कोई बात नहीं .........आज के युग में ये अधिक सुनने को मिलता है कि लड़कियां - अब लड़कों से कदम से कदम मिला कर चल रही है ...........ये सुन कर अच्छा लगता है .......लेकिन ये भी सत्य है कही कही ये कुंठित समाज उन्हें अपने चंगुल में फंसा कर रखा है ........आज किसी भी बड़ी संस्था में स्वागत द्वार (reception) पर स्त्रियाँ बैठी नजर आएँगी .........जो शोभा भी देता है ........लकिन कई जगह तो बेतुका लगता है .......जिन्हें ये लगता है किसी नारी के उपयोग से अपना कार्य सफल बना लेंगे तो वो सबसे ज्यादा कुंठित है यदि आप उनके अंदर के हुनर या गुण का उपयोग करेंगे तो सफलता कदम चूमेगी .......''.क्यूंकि नारी तू सम्मान है .........इस सृष्टि कि गुमान है ''

February 25, 2010

मैं और आईना........

देवेश प्रताप

एक दिन आईने ने मुझसे पूछा ,
तूने प्यार में दर्द कि सिवा पाया ही क्या है।
मैंने आइने से हंस कर कहा,
कि तुने मेरी सूरत के सिवा देखा ही क्या है

आईने ने पलट कर कहा,
फिर तेरी आँखों में ये आंसू क्यों टिकता है
मैंने आईने से मुस्करा कर कहा,
उनकी तस्वीर को तू आंसू क्यों समझता है

आईने ने फिर मुझसे पूछा ,
तू उसी से क्यों इतनी मोहब्बत करता है
मैंने आइने से नजरे मिला कर कहा,
समंदर में बमुश्किल से सीप का मोती मिलता है

अनंत सफ़र....

१५ नवम्बर १९८९, को शुरू हुआ सचिन का ये अनंत सफ़र कब रुकेगा ये कोई नहीं जानता। इसका जवाब सिर्फ सचिन के ही पास है। कल सुबह ही मैंने अपने पोस्ट में लिखा था कि सचिन महान हैं ,इसका एक और उदाहरण आज उनकी एक और पारी देखने के बाद पता चलता है। आज की पारी ने तो सचिन को अपने युग में साथ खेलने वाले सारे खिलाडियों से ज्यादा महान बना दिया है। आज उनकी पारी देखकर लगा ही नहीं कि कोई ३६ साल का खिलाड़ी खेल रहा है, और ये वो इंसान खेल रहा है जो क्रिकेट में २० साल पूरे कर चुका है। मैंने सुबह अपने पोस्ट में लिखा था कि कोई कहता है कि सचिन समय को रोक देते है, आज इसका सबसे बड़ा उदाहरण मैंने अपने ऑफिस में देखा जब सचिन १८७ रन पर खेल रहे थे , मैंने ये देखा कि लोगो ने अपने सारे काम छोड़ कर बस अपने कानो को कमेंट्री में लगा दिया काम की तो किसी को कोई फ़िक्र ही नहीं थी। वाकई में सचिन एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिनके अंदर समय रोकने कि ताकत है। आज ये बात सच साबित हो गयी है कि जो किसी खिलाड़ी से नहीं होता वो सचिन ही कर सकते हैं,आज वही हुआ जिसे होने में लगभग ४० साल और २९६२ एकदिवसीय मैच लग गए। यह खिलाड़ी आज एक खिलाड़ी नहीं रह गया है हम ये कह सकते है कि सचिन वो है जो संपूर्ण भारत को जोड़ने वाले है ये वे इंसान है जो लगातार २१ साल से हमारे चेहरे पर ख़ुशी दे रहे हैं। सचिन का खेल लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाता है। इसका एक उदाहरण है जब २६ नवम्बर को मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ था उसके कुछ दिन बाद ही सचिन ने इंग्लैंड के खिलाफ चेन्नई में शतक बनाया था और डरे हुए भारतीयों के चेहरे पर मुस्कान वापस लाये थे। आज सचिन एक खिलाड़ी नहीं एक प्रेरणा बन गए है आज के युवा वर्ग को उनसे सीखना चाहिए कि सफलता का कोई सरल तरीका नहीं है वो सिर्फ कठिन परिश्रम से ही मिल सकती है। उनकी एकाग्रता से ये सीख मिलती है कि कोई भी काम अगर इस तरह से एकाग्र होकर करने से कभी रुक नहीं सकता। आज कि पारी ने तो सचिन को सबसे अलग और सबसे ऊपर रख दिया है। आज देख कर लगा कि सच में ये क्रिकेट का चरम है और सचिन उस चरम पर चमकने वाला सबसे बड़ा सितारा है। बस सचिन ऐसे ही खेलता रहे और इस खेल को महान बनाते जाये उनकी इस पारी ने खेल को अपने आप पर फक्र करने पर मजबूर कर दिया है। २० साल से चला आ रहा ये सफ़र अनंत है जिसका कोई अंत नहीं है इसका अंत सिर्फ और सिर्फ सचिन ही जानते है। इस पारी के बाद सचिन को इस खेल का सबसे बड़ा खिलाड़ी कहा जाये तो ये गलत नहीं होगा।
लेखक : पंकज सिंह
प्रस्तुतकर्ता :देवेश प्रताप

February 24, 2010

क ख ग घ,,,,

रमेश मौर्या

जहां यार मित्र एक साथ बैठ जाएँ वहीं महफिल जम जाती है और फिर जाने क्या क्या बाते चलती हैं। ऐसे ही पिछले हफ्ते हम - मित्रो कि महफिल बैठी थी। हम सब में से ज़्यादातर ब्लॉग्गिंग में रूचि रखते हैं और ब्लॉग पढ़ते और लिखते हैं।

बात शुरू हुए ब्लॉग्गिंग को ले कर, हम सब हिंदी ब्लॉग लेखन से ही प्रेरित है और हिंदी ब्लोग्स ही ज्यादा पढ़ते और लिखते हैं। बातो बातो में मेरे १ मित्र ने मुझसे मेरे हिंदी ज्ञान के बारे में पुछ लिया।

मैंने भी बड़े गर्व से कहा कि हिंदी तो हमारी राष्ट्रभाषा है, इसका तो मुझे पुर ज्ञान है पूंछो क्या जानना है। उसने मुझसे बड़ा ही सरल सा सवाल पूछा कि, क ख ग घ सुनाओ और हिंदी एश वर्णमाला में कुल कितने अक्षर होते हैं स्वर और व्यंजन मिला के ? उसका ये सरल सा लेकिन , कठिन सवाल सुन के मैं चारो खाने चित हो गया क्यूंकि स्कूल में कक्षा 2-3 के बाद कभी क पढ़ने कि जरुरत ही नहीं पड़ी। जबकि क ख ग घ ही मेरी हिंदी भाषा कि पहली सीढ़ी है। ठीक ढंग से हिंदी भाषा बोलना सिखाने से पहले हमको क ख ग घ आना बहुत जरुरी होता है।
उस वक़्त मुझे बहुत शर्मीन्दगी महसूस हुई , और खुद पर तरस भी आ रहा था कि मुझे मेरी राष्ट्रभाषा कि नीव ही नहीं पता है। मैंने किसी तरह अपनी बला वहां बैठे और दोस्तों पर डाली लेकिन हम ५-६ लोगो में किसी को भी क ख ग घ का ज्ञान नहीं था यहाँ तक कि हममे से किसी को ठीक से ये नहीं मालूम था कि हिंदी कि वर्णमाला में कुल कितने अक्षर होते हैं।
हम सब १ दुसरे का मुहं देखते रह गएफिर हम सबने आपस में ज्यादा बात नहीं की और १-१ करके सब वहां से उठ के चलते बने। उस दिन के बाद मैंने अपने जान पहचान के करीब 25-३० लोगो से यही सवाल किया लेकिन किसी १ को भी सही उत्तर नहीं मालूम था।
मुझे ऐसा लगा कि शायद हिंदी का सबसे बड़ा दोषी मैं ही हूँ। अंग्रेजी और अंग्रजियत सीखते - सीखते मैं अपनी असली भाषा के ज्ञान को हे खो बैठा हूँ।
ये तो मैंने अपनी बात बताई लेकिन सच्चाई यही है कि हममे से ज़्यादातर लोगों को आज हिंदी बस बोलने भर कि आती है, हम खुद ही अपनी रास्ट्रीय भाषा को मार रहे हैं, क्यूंकि अगर ऐसा नहीं होता तो हमको हिंदी दिवस मानाने कि जरुरत ना पड़ती।
अगर आपको भी देखना है कि आप कितने पानी में हैं तो, एक बार पूरा क से ज्ञ याद कीजियेगा फिर आपको ख़ुद ही मालूम हो जाऐगा कि आप कितने पानी में तैर रहे हैं।
राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी ने कहा है
"एक राष्ट्र राष्ट्रीय भाषा के बिना गूंगा है "

क्रिकेट बड़ा या सचिन...

क्रिकेट में एक कहावत है कि कोई खिलाड़ी खेल से बड़ा नहीं होता,और जब मैं नज़र घुमा कर देखता हूँ तो बात सच भी नज़र आती है, कि कोई भी खेल से बढकर नहीं है, लेकिन जब मेरी नज़र सचिन पर पड़ती है, तो मैं अपने आप में ही उलझ जाता हूँ कि क्या सच में सचिन बड़ा या खेल तब मैं यही सोचने लगता हूँ कि क्या बचा है इस खेल में जो सचिन ने ना किया हो, आज कोई उन्हें क्रिकेट का जादूगर कह रहा है, और कोई उन्हें क्रिकेट का भगवान जिसे जो पसंद आया उसने उस नाम से उन्हें बुला लिया आज सचिन की उपलब्धियाँ सचिन से भी बड़ी हो गयी है सचिन के बारे में आज जितना कहा जा रहा है वो सब तो यही लगने लगता है कि सच में कहीं सचिन ही तो क्रिकेट से बड़ा नहीं है सचिन के बारे में लोगों के अपने - अपने विचार हैं कोई कहता है कि भारत में एक व्यक्ति है, जो समय को रोक सकता है, तो कोई कहता है कि मैंने भारत के लिए नंबर चार पर भगवान को खेलते देखा है और कोई कहता है क्रिकेट एक धर्म है और सचिन इसके भगवान है उनके आकड़े भी इस बात को ये सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं,कि जिस इंसान ने एकदिवसीय में लगभग १७५०० रन और टेस्ट में१३५०० रन बनाये हो और जिसके नाम दोनों प्रारूपो में ९२ शतक हो। अब मैं क्या बताऊ इनके रेकॉर्ड्स के बारे में ,इनके रेकॉर्ड्स को मैं एक पोस्ट में बता सकूँ ऐसा बहुत कठिन है क्यूंकि क्रिकेट का कोई भी रिकॉर्ड इनसे बचा ही नहीं है, या यूँ कहें कि रिकार्डो का बेताज बादशाह ये सारी बातें सोचने को मजबूर करती है कि सचिन ही खेल से बड़े है लेकिन मन में यही बात आती है कि सचिन क्या हैं उन्हें जो कुछ मिला आज वो जो है वो सिर्फ इसी खेल कि वजह से है, आज अगर यह क्रिकेट का खेल ना होता तो उसका भगवान भी ना होता ऑस्ट्रेलिया के महान कप्तान स्टीव वां ने कहा है कि कोई भी खिलाड़ी खेल से बड़ा नहीं होता। उनका यह कथन मेरे मन की इस दुविधा को ख़त्म करता है कि सच में कोई भी खिलाड़ी चाहे कितना भी महान हो जाये, लेकिन वो खेल से बड़ा नहीं होता क्यूंकि सचिन तो एक खिलाड़ी हैं, जो आज है कल नहीं रहेंगे, लेकिन ये खेल आज भी है और कल भी रहेगा सही मायने में ये कहा जाये कि सचिन नहीं उनसे भी ज्यादा है, महान ये क्रिकेट, जो अपने लिए खेलने वाले खिलाडियों को महान बनाता है अंत में मैं इसी निष्कर्ष पर निकलता हूँ कि सच में खेल बड़ा है ना की अर्थात क्रिकेट बड़ा है ना कि सचिन !
लेखक : पंकज सिंह
प्रस्तुतकर्ता : देवेश प्रताप

February 22, 2010

आधुनिकता हमारे धैर्य छमता को कमजोर कर रही है......





आज हम आधुनिक युग में हैं....जहाँ हर काम मिनटों में हो जाता है, बड़े से बड़े काम के लिए हमारे पास आज कई विकल्प होते हैं। ज्यादा नहीं २० साल पहले चले जाएँ औ हम अगर आज के आधुनिक समय कि तुलना उस वक़्त के परिवेश से करे तो हम देखंगे कि किसी भी कार्य को करने में उस वक्ता जितना समय लगता था आज हम उससे कई गुना कम समय खर्च करके और अच्छा फल प्राप्त कर लेते हैं।
जैसे कि अगर हमें पहले किसी को कोई खबर भेजनी है तो हम पत्राचार का उपयोग करते थे या तार डालते थे। और पहुँचाने में कम से कम ३-५ दिन लग जाते थे, कई बार तो और भी समय लगता था। और आज हमारे पास वही खबर पहुचने के कई माध्यम उपलब्ध हैं जिनसे हम कुछ सेकंड खर्च करके किसी को दुनिया के किसी भी कोने में कोई भी खबर दे सकते हैं जैसे - ई - मेल, मोबाइल कॉल आदि।
हमने बहुत तरक्की कि और हम सब को बहुत गर्व होना चाहिये कि आज हम इस आधुनिक युग में जी रहे हैं।
लेकिन क्या हमने कभी इस ओर ध्यान दिया कि, ये आधुनिकता हमारी धैर्य शक्ति को खाती जा रही है। हम कितने अधीर होते जा रहे हैं, जैसे जैसे हमें आधुनिकता कि लात लग रही है हम उतना ही अपना धैर्य खोते जा रहे हैं।
अपने घर से दूर रहने पर पहले अगर हमको घरवालों से बात करनी होती तो हम या तो trunk कॉल का सहारा लेते या उनको पत्र लिखते और याद अभी आई तो कम से कम १ दिन में बात होना संभव हो पता था। और तब भी हमको बहुत सुकून मिलता था कि, चलो जिसकी याद आई उससे बात तो हो गई, लेकिन आज अगर हम किसी को फ़ोन कॉल कर रहे हैं और कॉल १ बार में नहीं लगी तो हमको गुस्सा आ जाता है, यानी कि हमने अपना धीरज कुछ सेकंड में ही खो दिया।
हम तरक्की के मामले में जितने कदम आगे बढे हैं उतने ही पीछे अपने धैर्य और सहनशीलता के मामले में आ गए हैं।
तरक्की जरुरी है,लेकिन ऐसी तरक्की जिससे हम अपना धैर्य खो दे तो ऐसे स्थिती के बारे में हमें सोचना होगा।

देखा देखी पाप, देखा देखी पुण्य

विकास पाण्डेय

बात तक़रीबन १६ साल पहले कि है, लेकिन आज भी नयी है । मेरी बूढ़ी आम्मा कहा करती थी कि ''बेटवा अच्छे बच्चो के साथ रहा करो,नेक बच्चो कि संगत करो। अच्छे कि संगत करोगे तो अच्छा बनोगे और बुरे के साथ में निसंदेह बुरा ही'' वो बात अलग है कि कमल के फूल कीचड़ में ही खिलते हैं और ना जाने कितने विषधर सांपो के बीच रहने पर भी चन्दन का पेड़ अपनी शीतलता नहीं खोता क्यों कि जो भी हम अपने बड़े बूढ़े से सीखते हैं वही करते है फिर चाहे वह पाप हो या पुण्य अच्छा हो या फिर बुरा ।
ऐसे कई उदाहण हैं, खैर मै अपने से ही शुरू करता हूँ मैंने सुना था कि ब्लॉग लिखने से क्रिएटिविटी में पंख लग जाते है ,और यहाँ आप सभी को देख कर अब ऐसा महसूस होता है कि ना सिर्फ पंख लग जाते हैं बल्कि उन पंखो में इतनी ताकत और ऊर्जा आ जाती है कि ब्लॉग के अनंत सागर में अपने लेखन कि अलग पहचान बनाने में सफल रहते हैं। शुरुवात में ब्लॉग पढ़ना शुरू किया और अब आप लोगों कि देखा देखी ही टेढ़ा मेढ़ा ही लेकिन लिखने का सिलसिला प्रारम्भ कर दिया है और ये सिलसिला यूँ ही नहीं थम रहा मेरे कई करीबी दोस्तों ने भी हमारा साथ देना शुरू कर दिया है और इसी नाव पर सवार हो गए हैं जिसमे आप और हम हैं ।
मै बचपन में अपने पड़ोस के बाबा को देखा करता था कि वो प्रत्तेक रविवार को कुएं के पास अपने सायकिल को धुला करते हैं ,उनके यहाँ से हमारी पुरानी वैमनस्य थी इस कारण चला चली भी रहती थी। उनकी देखा देखी मै भी अपनी २० इंच कि लाल सायकिल को कुए के उपर चढ़ा कर धुलता था। भावना तो ईर्ष्या कि ही थी लेकिन मेरा काम हो जाता था। और अब ऐसा लगता है कि ईर्ष्या में ही क्यों ना अगर देखा देखी पुण्य हो रहा हो जिससे स्वयं और समाज का हित हो रहा हो तो हो जाना चाहिए। आचार्य विनोवा भावे जी ने कहा है कि ''स्वयं के लिए कार्य करना बहुत ज़रूरी है,लेकिन उसका दायरा जितना बड़ा हो उतना ही समाज के लिए लाभकारी होता है'' ।

February 20, 2010

तन्हाई कहती है .....

देवेश प्रताप

तन्हाई अपनी व्यथा सुनाते हुए कहती है ......

अक्सर वो मुझसे ख़फा रहते है
जाने क्यों मुझसे जुदा रहते है

मैं दामन विछा देती हूँ
उनकी ख़ुशी के लिए
जब उनके जीवन के
फूल मुरझा जाते है

मचल जाती हूँ
उनकी एक हंसी के लिए
सहन होता नहीं ,ये देख कर
जब वो बेवफा के लिए रोया करते है

दौड़ आती हूँ , पास
उनके लाख मना करने पर
खुश होता है मन ,उन्हें देख कर
चैन से जब वो सोया करते है

''तन्हाई'' कह कर मुझे ,वो कोसा करते है
तन्हा मै भी तो हूँ, क्यूँ वो समझा करते है

February 17, 2010

विद्यालय जैसे पवित्र जगह मत फैलाओ भेद भाव ...........

देवेश प्रताप

एक समय हुआ करता था जब गुरुओं से शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुकुल जाना पड़ता था मो-माया छोड़ कर भौतिकवाद को त्याग कर शिक्षा प्राप्त किया जाता था , परन्तु समय के अनुसार धीरे धीरे सारे नियम बदलते गए जो की जरूरी भी था , शिक्षा ग्रहण करने के लिए इमारते बन् ने लगी बड़े बड़े विद्यालय -विश्वविद्यालय बन कर तैयार होने लगे शिक्षा का ऐसा विस्तार भारत देश के लि अतिआवाश्यक था शिक्षा के विस्तार का मतलब देश का विस्तार जितने ज्यादा लोग शिक्षित होंगे उतना ही देश का विकास होगा ,ऐसा माना जाता है जैसे -जैसे शिक्षा का निजी करण बढ़ता गया वैसे वैसे शिक्षा का व्यापार भी बढ़ गया या यूँ कहिये खरीदारी बढती गयी आज के दौर में धुंआ -धाड़ डिग्रियां बिक रही है बस खरीदार के पास उतनी रकम होने चाहिये ये माना कि निजी विद्यालय जितनी रकम लेते है कम से कम उतनी व्यवस्था भी मुहैया कराते है आज के दौर में फीस महंगी हो तो विद्यालय अच्छा ही होगा ये जरूरी नहीं ये मात्र एक वहम होता है दिल्ली और आस पास कुछ ऐसे विद्यालय है जो होटल की राह पर चलते है या यूँ कहिये शिक्षा बेचने की सितारा दूकान चलाते है यदि आप अपने बच्चे को वातानुकूलित कमरे में पढ़ाना चाहते है तो उसके इतने रु ........ फीस है, यदि सामान्य कमरे में पढाना चाहते है तो उसके इतने रु .......है , वाह ! क्या व्यवस्था है एक ही छत के नीचे, एक ही कक्षा में राम और श्याम अलग -अलग कमरे में पढते होंगे राम, सामान्य कमरे में पढता होगा और श्याम वातुनुकूलित कमरे में ,लेकिन यहाँ राम और श्याम बाहर निकलने पर ,राम- श्याम से बात करने में असहजता महसूस करता होगा क्यूंकि कही कही उस बच्चे के दिमाग में ये सवाल उठता होगा कि मैं क्यों नहीं वातानुकूलित कमरें में पढता ??,,,,ऐसे नजाने कितने प्रश्न उठते होंगे ,उन मासूमो के दिमाग में जो ...सामान्य कमरे में पढ़ने के लिए दाखिला लिए होंगे ऐसे विद्यालय .....क्या शिक्षा देते होंगे ? यदि सच में कोई शिक्षक होगा तो इस विद्यालय की डेहरी पार करने में उसका ज़मीर साथ नहीं देगा ........मुझे तो बिलकुल नहीं लगता की ऐसे विद्यालय में शिक्षक पढाते होंगे ....वो भी व्यापारी होंगे किताबों के ......और जो इस विद्यालय की नीव रखा होगा उसका तो शिक्षा से कोई लेना देना नहीं होगा .......वो व्यक्ति भी जरूर किसी होटल का व्यापारी होगा और जो अभिभावक उस विद्यालय में अपने बच्चे को पढ़ने के लिए भेजते होंगे .......वो शायद अपने आप से मजबूर होंगे विद्यालय जैसे पवित्र जगह मत फैलाओ भेद भाव ........कही तो पवित्रता बरकरार रहने दो ...........!!!

February 15, 2010

गरीबी ने निशाना बनाया अंतर्राष्ट्रीय खिलाडी को

विकास पाण्डेय

क़र्ज़ उतारने के लिए शूटर ने बेचा सामान
उधार लेकर ''दोहा'' गया और सिल्वर मेडल भी लेकर आया,लेकिन इस बीच वह भीषण क़र्ज़ में डूबता चला गया ,हौसला अब जवाब देने लगा है।

आज सुबह जब सोकर कर उठा और बालकनी के पास अख़बार उठाया और स्वभावतः न्यूज़ पेपर पीछे कि तरफ से स्पोर्ट्स पृष्ठ खोला तो कुछ इस तरह कि हेडलाइन देखी तो अन्दर कि स्टोरी जानने कि तीव्र इच्छा हुई, लेकिन जैसे -जैसे कहानी आगे पढ़ता गया, निराशा के साथ साथ एक सोच भी उत्पन्न होती गयी जिसकी चर्चा बाद में करता हूँ , पहले तो ज़रा इस कहानी से आपको अवगत करा दू। अंगदपुर जौहरी गावं बागपत [मेरठ ] के रहने वाले फारुख अली को डेढ़ महीने पहले दोहा में हो रहे तीसरा एशियन एयर गन चैम्पियन में भाग लेने के लिए जाना था ,फारुख भाई ने वहां जाने के लिए अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से पैसे उधार लिए । चम्पियाँशिप में वे सिल्वर मेडल भी जीतकर ले आये लेकिन इस बीच इतने कर्ज़दार हो गए कि उधार चुकाने के लिए और पैसे का कोई स्रोत ना होने के कारण अब अपने मेडल और सामान बेचना शुरू कर दिया है । होनहार शूटर ने सरकार को विदेश से पदक तो जीतकर ला दिए लेकिन इस दौरान कितना रुपया खर्च हो गया इससे सरकार का कोई वास्ता नहीं है ।
फारुख भाई का परिवार गरीब तबके से सम्बन्ध रखता हैउनके घर वाले का कहना है कि "पदक पर गर्व है लेकिन सामान बेचने पर दुःख"
अब आता हूँ अपने मन में चल रहे उथल पुथल विचारों पर जो ना चाहते हुए भी सरकार को कोस रहा है, कि कभी यहाँ हाँकी पुरुष और महिला खिलाड़ी प्रोटेस्ट करते हैं तो कभी कोई खिलाड़ी इकलौता गोल्ड मेडल लाता है तो अगली बार उसे इस लायक ही नहीं समझा जाता कि वह भारत का प्रतिनिधित्व कर सके, इसे तो सिर्फ हिन्दुस्तान का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। यहाँ तो सिर्फ क्रिकेट जैसा पैसे का पेड़ ही फलता और फूलता है। फारुख अली जैसा खिलाड़ी पैसे के कारण गुमनामी के गलियारों में खो जाते हैं और हम एक लम्बी सांस लेते हैं और फिर दूसरी ख़बर कि ओर बढ कर क्रिकेट का स्कोर कार्ड देखने लगते हैं।

February 14, 2010

ए सपनों की परी,,,,,,,

देवेश प्रताप


सपनों की परी
तू कंहा रहती है

कभी मेरे बसेरे में
आया करो

बैठेंगे खूब बातें करंगे
हमें अपने भी किस्से सुनाया
करो

सपनों की दुनिया में साथ
सैर करंगे
मेरे ख्वाबो को भी सजाया
करो

तेरे आने से दुनियां हँसी हो जाती है
मेरी दुनिया में भी फूल बरसाया
करो

तेरी यादों में रातें छोटी हो जाती है
यूँ यादों से दूर जाया करो

February 12, 2010

क्या इंसान अपनी सोच को बढ़ावा नहीं दे पे रहा है ?

देवेश प्रताप

इंसान ही इंसान को कैसे कष्ट पहुंचता है दर्द, इंसानों में बंटवारा करना नहीं जनता ,सबको सामान रखता है फिर भी एक इंसान दुसरे इंसान को कष्ट पहुंचाता है अखबार में आज एक ख़बर पढ़ा ......ख़ कुछ ऐसी थी '' पीडी कर रही एक युवती ने अपने पति के साथ दस साल की नौकरानी को केवल बेरहमी से पीटा बल्कि उसके हाथ तवे पर रख जला दिए '' (हिन्दुस्तान) इस ख़बर को पढ़ कर मन में कई प्रशन उठे ,कैसी है ये दुनिया ? आधुनिकता और शिक्षा के बढ़ते कदम के साथ क्या इंसान अपनी सोच को बढ़ावा नहीं दे पे रहा है ? शिक्षा के शिखर पर बैठी एक महिला एक दस साल की बच्ची का हाथ जला देती है, उस युवती के माँ-बाप को बहुत खुशी होती होगी अपनी बेटी को देखकर लेकिन वही बेटी एक दूसरी बेटी को प्रताड़ित कर रही है इंसान अपने इस्तर से नीचे वालों को क्यों गाजर -मुली समझता है , ऐसा लगता है की उन लाचार लोगों की कोई भावनाए नहीं होती ,कोई इच्छाए नहीं होती या फिर कोई सपना नहीं होता ये एक अकेला ऐसा मामला नहीं ऐसी घटनाये आये दिन ख़बरों में होती है , और इन घटनाओ में अक्सर नाबालिग बच्चे और बच्चियां शिकार होती है और सबसे सोचनीय बात तो ये होती है, ऐसे मामले उन घरो से जायदा होते जहाँ शिक्षा और रहन -सहन उच्स्तरिय होता है अफ़सोस ...................................

February 10, 2010

ट्रेन में सफ़र करता बचपन ......

देवेश प्रताप

३-४ दिन पहले गाँव जाना हुआ था । दिल्ली आने के लिए प्रतापगढ़ स्टेशन से ट्रेन पर बैठे .....स्टेशन को विदा करते हुए ट्रेन आगे बढ़ी .....थोड़ी देर बाद एक सात-आठ साल का बच्चा आया जिसके हाथ में झाड़ू थी , वो नन्हा फरिस्ता ऐसा लग रहा था की उपर वाले ने ख़ुद उसे इस दुनिया की गंदगी साफ़ करने के लिए भेजा है , आँखों में एक आश और चेहरे पर मासूमियत साफ़ झलक रही थी । वो ट्रेन के कम्पार्टमेंट की सफाई इस तरह से करने में जुट गया जैसे रेलवे का सफाईकर्मी हो ,और ममता बनर्जी(वर्तमान रेलवे मंत्री ) ने ख़ुद उसकी नौकरी दिलाई हो , सफाई करने के बाद लोगो से अपना मेहनताना मांगने के लिए हाथ बढाता , कुछ लोग दया दृष्टी दिखाते हुए ..एक रुपया निकालते और उस बच्चे के हाथ में दे देते और कुछ लोग इस तरह बुत बन जाते जैसे कोई पुतला बैठा हो उसे कुछ दिखाई और सुनाई नहीं देता । ट्रेन और बच्चे में एक समानता नज़र आई ......ट्रेन अपनी मंजिल के लिए सफ़र कर रही थी और वो बच्चा अपने बचपन को जीने के लिए सफ़र कर रहा था । ऐसे नजाने कितने मासूम अपनी ज़िन्दगी के लिए सफ़र कर रहे है । इन बच्चों के लिए कहने को तो बहुत से N.G.O (non government organization) और कई तरह की सरकारी संस्था काम करती है । लेकिन इन सब संस्थाओ का असर कम ही दिखाई देता है .

February 5, 2010

विवाद पैदा कर रहा है फेसबुक ........

देवेश प्रताप

कहाँ से शुरूवात करें ये बात ,जिसकी चर्चा यहाँ करने जा रहे है , अभी थोड़ी देर पहले फेसबुक (सोसिअल नेट्वोर्किंग साईट ) को लोगिन किया ....प्रोफाइल पर एक अचम्भित चीज दिखी ....एक कम्युनिटी ,जिसमें मेरे प्रोफाइल के कुछ लोग सदस्यता ले रखे है मैंने भी जब वो कम्युनिटी को खोल कर देखा तो ......बहुत हार्दिक दुःख हुआ आप भी देखिये ये क्या है इस तस्वीर में। ..........आखिर आज के इस आधुनिक युग में अब क्या ये तरीका है ..भारत के प्रति नफरत फ़ैलाने का ..........इस कम्युनिटी में ....साफ़ शब्दों में ये लिखा है ......की यदि १००००० लोग इस कम्युनिटी से जुड़ते है तो ''F**** INDIA'' कम्युनिटी को डिलीट कर दिया जायेगा । ....वाह क्या तरीका है .....मतलब यदि आप अपने देश से प्यार करते है .....तो जल्द से जल्द इस फेसबुक को ज्वाइन करिए , और फिर इस कम्युनिटी के सदस्य बनिए .....क्या इस तरह के विवादित कम्युनिटी बना के फेसबुक अपनी .....बाजार बढ़ाना चाहता है ?.......तो मकसद साफ़ है फेसबुक यही करना चाहता ...इस बात से सर्वेक्षड कर रहा है की भारत में उसकी बाज़ार कैसी चल रही है , यदि ये बात गलत है तो इस तरह की कम्युनिटी पर फेसबुक टीम को कारवाही करनी चाहिए .... भारत में लोगो की भावनाओ से खेलकर .......और उकसा कर कुछ भी किया जा सकता है , क्यूंकि इस बात का इतिहास गवाह है , इस तरह की वेबसाइट इन्टरनेट पर अच्छा व्यसाय कर रही है ..इनका मकसद होता दुनिया के किसी भी कोने के लोग एक जगह लाकर मिलाना , तो ऐसे में इस तरह से विवादित कोई भी कम्युनिटी या कोई विवाद को जगह दे ......वरना अंजाम क्या होगा ये .....फेसबुक भी नहीं जनता

February 4, 2010

जैसे की मै भी लिख रहा हूँ.......

देवेश प्रताप

इन दिनों मुंबई में चल रहे ठाकरे परिवार द्वारा कही गयी ये बात '' मुंबई सिर्फ मराठियों की है'' चर्चा जोरो पर है .....समाचार पत्र से लेकर टी वी तक, तथा इन्टरनेट पर भी इस बात की चर्चा खूब हो रही है ......लोगो को बोलने के अच्छा मौका मिला है । बयानबाजी देने के लिए लोग सज कर बैठे है कब टीवी वाले आयंगे और कब बयानबाजी करने का मौका मिलेगा । समाचार पत्रों में भी एक -दो कालम तो इसी ख़बर से भर दिया जा रहा है । इन्टरनेट पर ब्लॉग लिखने वाले तो पोस्ट लिख लिख कर लाइन लगा दिए है (जैसे की मै भी लिख रहा हूँ )। वैसे भी भारत देश में किसी भी विषय में, कोई भी व्यक्ति प्रतिक्रिया देने में सबसे माहिर है ......ये गुण यहाँ सब को विरासत में मिलती है । ठाकरे परिवार उत्तर भारतीयों की साथ जो कर रहा है । वो तो उसकी बेशर्मी है । लेकिन उससे जायदा बेशर्मी उत्तर भारत के नेता कर रहे है ........जो की यहाँ से बैठे उत्तर भारतवासियों के प्रति सांत्वना प्रकट करते है और उनकी सुरक्षा के लिए आश्वासन देते है , अरे आश्वासन देना है तो इस बात का दो कि उत्तर भारत का ऐसा विकास करेंगे कि, कम से कम लोग मुंबई की तरफ रुकसत करेंगे ..........ज्यादा से ज्यादा रोजगार उपलब्ध करायेंगे .......लेकिन ये सब तो तब होगा जब खुद का पेट भरे ,.......कोई अपनी मुर्तिया बनवाने में व्यस्त है , तो कोई दलित के घर खाना खा के और रात बिता के ये जाता रहा है की देखो मै.....इतना बड़ा आदमी होकर तुम जैसे तुच्छ प्राणी के हाथ का खाना खाया , तो कोई आगली बार सत्ता में आने के लिए ......वोट बटोरने की तैयारी कर रहा है । .....और जब मुंबई में बैठे ठाकरे परिवार उत्तर भारतियों पर हमला करता है उनका अपमान करता है ..तो उस वक्त .....उत्तर भारत में बैठे नेता बयान बाजी देने के लिए तैयारी करते है , और हम जैसे लोग ..........इन विषयों को एक चर्चा के रूप देकर खत्म केर देते है ।

February 3, 2010

सुना है तेरे शहर के ...........


देवेश प्रताप

ये मन की एक कल्पना जो शब्दों का रूप ले लिया ।





सुना
है तेरे शहर के हर ज़र्रे ये शिकायत करते है
कि तूने नंगे पावं चलना छोड़ दिया

एक वक्त था तू जब चला करती थी
पेड़ ,पत्ती तेरे संग झूमा करते थे
फूल तेरी राहों में बिखर जाते थे
कांटे तुझको देख कर टूट जाते थे

कि तूने बागो में जाना छोड़ दिया॥


आइना भी तुझे देख कर इतरा जाता था
मौसम भी तुझसे मिलनों को तरस जाता था
सज-सवंर के जब तू चला करती थी
चाँद-तारे , ज़मी से रश्क करते थे

कि तूने सजना -सवंरना छोड़ दिया॥

तेरे छूने से पत्थर भी पिघल जाता था
लहरे तुझ को पाकर उछल जाती थी
हवाएं भी तेरा इन्तजार करती थी

कि तूने घर से निकलना छोड़ दिया॥


एक नज़र इधर भी

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