देवेश प्रताप
बचपन का सफर बहुत सुहाना होता है , कोई गम नहीं कोई बोझ नहीं, न कुछ खोने का डर, न कुछ पाने कि ललक ,ऊपर वाले का भी खेल निराला होता है किसी को इतनी खुशियाँ देता है कि उनकी जिंदगी उन्ही खुशियाँ के बीच कट जाती है। और किसी को इतना दुःख कि उन दुखों के बीच कुछ देखने को बचता ही नहीं ,और दुःख का असर तब ज्यादा होता है जब बचपन के खिलने का समय होता है।
एक शहर से दूसरे शहर ,एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक सफर करती रेल गाडी न जाने कितने यात्रियों को अपने आगोश में लेती है। और मंजिल आने पर छोड़ देती है । अक्सर रेलगाडी ,में बचपन सफर करता मिलता है हाथ में झाड़ू लिए , पोलिश लिया या फिर पानी कि बोतलें लियें , देश के सबसे बड़ी सेवा रेल सेवा में अक्सर ये नन्हे सेवक यात्रियों कि सेवा करते मिलते है ,कितना मार्मिक होता है ,जब एक बच्चा हाथ में झाड़ू लिए रेल के डिब्बे कि सफाई करना शुरू करता है। देख कर ऐसा लगता है जैसे उस नन्हे फरिस्ते को ऊपर वाले ने खुद भेजा हो ,सफाई करने के लिए वो फरिस्ता इस तरह मन लगा कर काम करता है जैसे रलवे ने खुद उसकी नियुक्ति किया है ,सफाई करने के बाद जब ,वो नन्हे हाथ आगे बढते अपने मेहनताना लेने के लिए उस समय डिब्बे में बैठे कुछ यात्री जिनका दिल पसीजता है वो एक या दो रु निकाल कर पकड़ा देते है , और कुछ बुत बनजाते है जैसे उन्होंने कुछ देखा ही नहीं । अब देखिये दूसरा नन्हा सेवक आ गया इसके हाथ में बूट पोलिश करने के लिए ब्रुश है ,इस बच्चे कि आँखों में बस एक ही आश दिख रही है ,कि जिन्होंने भी चमड़े का जूता पहन हुआ है , वो पोलिश करवा ले जब कोई अपना जूता पोलिश करवाने के लिए पैर आगे बढाता है तो बच्चा उस जूते कि तरफ ऐसा लपकता जैसे उसकी सारी खुशी मिल गयी हो , और फिर जुट जाता मन लगा कर जूता पोलिश करने में ,उस वक्त बच्चे कि जितनी भी आकाँक्षाओं कि चमक होती है ,उस चमक को जूते में उतार देना चाहता है , क्यूंकि बूट पोलिश के अवेज़ में जो भी पैसा मिलेगा ,उन पैसों से अपनी इच्छाओं कि पूर्ति करने कि कोशिश करेगा . लेकिन इच्छाओं कि प्यास कभी बुझती नहीं , इच्छा कि प्यास बुझे या न बुझे लकिन यात्रियों कि प्यास बुझाने के लिए एक और बालक हाँथ में पानी कि बोतलें लिए यात्रियों के पास आता है , उस बच्चे ने शायद अपनी प्यास बुझाने के बारें में न सोचा हो ,लेकिन यात्रयों कि सेवा करने के लिए तत्पर्य है , ''निर्मल स्वच्छ पवित्र '' पानी के ये गुण बचपन में भी विद्यमान होता है कितनी समानता है पानी और बचपन में ,पानी मज़बूरी वश उस बोतल में कैद है .और वो बालक अपने जीवन से मजबूर है . ऐसे न जाने कितने बचपन अपने जीवन के साथ सफर कर रहे है , इन देश के भविष्य का जिम्मेदार कौन है उनके माँ -बाप या फिर सरकार , ये भी कहना मुश्किल . इन बच्चो का देख भाल करने के लिए कई गैर सरकारी संस्था काम करती है और कुछ सरकारी संस्था भी , तो क्या उस संस्था से जुड़े व्यक्तियों से ऐसे बच्चों से मुलाकात नहीं होती ,वैसे कभी तो वो भी रेल में सफर करते होंगे , लकिन ये भी बात है ऐसे लोग वातानुकूलित डिब्बों में सफर करते है , तो बात ही खत्म उस डिब्बे में भारत तो विकास कि चरम पर है ।
7 comments:
इन बच्चों के नाम पर कई लोग पैला डकार रहे हैं। इनके माता-पिता को शिक्षित करने की ज़रूरत है।
मेरा आशय पैसे से था,
हाँ, सही लिखा है आपने. कुछ करना चाहिये इन बच्चों के लिये. पता नहीं वे खुद ये काम कर रहे हैं या कोई ज़बरदस्ती करवा रहा है. आप जैसे युवा जब ऐसी सम्स्याओं के बारे में चिन्ता करते हैं, तो एक अश्वस्ति होती है. good work !!!keep it up.
अभी दो दिन पहले हम इस विषय पर चर्चा कर रहे थे कि हमें अपने विचार उठाने हैं बाल श्रमिकों की समस्या पर, जिसमें उन बच्चों को भी सम्मिलित करने की बात कही थी हमने, जो रेल के डिब्बों में झाड़ू लगाते हैं. थोड़ा शोध और विवेचना बाकी थी, इसलिये फिलहाल ये टल गया. हमें खुशी है कि आपने इस विषय पर सोचा और अपने विचार व्यक्त किये. आपकी सम्वेदनशीलता दिखाई देती है. लेकिन एक बात से सहमत नहीं हूँ मैं. पानी की बोतलें किसी भी दृष्टि से पीने योग्य नहीं होतीं और स्वास्थ्य की दृष्टि से घातक भी होती हैं.
ख़ैर आपके विचारों ने मुनव्वर राना साहब का एक शेर याद दिला दिया
फ़रिश्ते आके जिनके जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं,
वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं.
bohot achcha likha hai. ekdam lekhak bante ja rahe ho. keep it up
bal shram ek
gambhir smsya
hai eske nidan hetu
kdm uthane chahiye
Aalekh ne dil ko chhoo liya..
Ramnavmi ki shubhkamnayen!
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