देवेश प्रताप
एक धागे में बंधी
मै तो उड़ चली थी,
स्वछन्द आस्मां में
मै लेहरा रही थी,
आस्मां भी बाहें
फैलाये मेरा इंतज़ार
कर रहा था ।
मै भी झूम झूम कर
आगे बढ़ रही थी
मन में एक विश्वास
था , एक डोर के
सहारे अम्बर
को छू लेने का
जज्बा था॥
लेकिन ये क्या , किस से देखा
नहीं गया , यूँ मेरा
गगन में लहराना ,
मेरी तम्मनाओ के पंख
किसने एक पल में
काट दिए ,
क्यूँ काट दिया मेरी उस विश्वास
कि डोर को जिसके सहारे
मै आस्मां को छूना चाहती थी ,
मेरी डोर को काटने वाले
को सुकून मिल गया होगा ,
मुझे आस्मां में भटकते हुए
और ज़मीं पर गिरते हुए
देख कर ॥
10 comments:
Geet yaad aaya,'meree zindagee hai kya,ek kati patang hai...'
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
patang sikhati hai humein ki jab tak ho ji bhar ke ud lo, phir ek na ek din to kat hi jaana hai.....
patang sikhati hai humein ki jab tak ho ji bhar ke ud lo, phir ek na ek din to kat hi jaana hai.....
Nice post ......I like it very much.
हर ऊपर जाने वाले को दुनिया इसी तरह काटने का प्रयास करती है… लेकिन ये तो दुनिया है इंसानों की इसे सही स्पिरिट में लेना चाहिए...
मौत से किसकी रिश्तेदारी है
आज उसकी तो कल हमारी बारी है.
इसलिए जब पतंग के कटने का अफसोस हो, तो किंग ब्रूस और मकड़ी की कहानी याद करें!!
bahut sundar bahut hi utkrist
maan ke vichaaro ko shabdo ke maadhyam se achcha roop diyaa hai
i m speechless...
आपकी टिप्पणी के लिए आपका आभार...उडी उडी रे पतंग मेरी...अच्छी कविता हैं...
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