2009 के विदाई का वक्त आगया । आज ये साल विदा हो रहा है . उसी जोश के साथ जिस जोश के साथ आया था । वक्त कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता है । नया साल कब पुराना हो जाता है अहसास ही नहीं होता है । जाते - जाते ये साल दे जायेगा तो सिर्फ कुछ मीठी और कुछ खट्टी यादें । भारत देश के लिए ये वर्ष खेल जगत मों तो ठीक रहा है । सचिन ने जब खेला तब बनाया रिकॉर्ड और badminton में सायना नेहवाल ने चीनियों पर अपना वर्चस्य बनाया लेकिन व्यापार जगत में सत्यम ने दिया झटका तो महंगाई ने आम लोगो आपने मुट्ठी में दबा कर रखा । सोने चांदी ने भी अपना उतार चड़ाव जारी रखा । मनोरंजन की जगत में A.R RAHMAN को मिला ऑस्कर जिस पर बॉलीवुड को हुआ नाज़ । तो से इस तरह कुछ यादें दे के जा रहा है ये साल। ..........आनेवाले नए साल के लिए आप सब को ढेर सारी best wishes .
अक्सर मन और दिमाग में कुछ विचार चलते रहते है...इन्ही विचारो को शब्द रुपी माला में पिरोने का प्रयास...धन्यवाद
December 31, 2009
December 29, 2009
YMI 'ये मेरा इंडिया'
देवेश प्रताप
ये मेरा इंडिया । ये एक मूवी का नाम है । तकरीबन 4-5 महीने पहले ही सिनेमा घरो में आई थी । ये मूवी भी बस यु ही आई और चली गयी । कुछ दिन पहले मेरे एक सीनयर ने देखा और हमें भी देखने को कहा उन्होंने कहा के YMI देखना बहुत अच्छी मूवी है । मै DVD लाया और इस मूवी को देखा ........वाकई बहुत अच्छी मूवी है । इतनी अच्छी के चन्द शब्द लिखने का मन कर गया । न जाने क्यों लोगो के बीच इस तरह की फिल्म क्यों नहीं ज़यादा चर्चित हो पाती। शायाद इसलिए...........रोजमर्रा के जीवन को बहुत सच्चाई से दर्शया है । फिल्म में क्षेत्रवाद और धर्म सम्प्रदाय के निरर्थकता को बड़ी सरलता से पेश किया है । कहानी की शुरआत और अंत को बहुत बखूबी से जोड़ा गया है । इस फिल्म का एक -एक किरदार अपने रोल को बखूबी निभाया है । इस फिल्म की कहानी , निर्देशन और एडिट खुद N.CHANDRA ने किया है ।
ये मेरा इंडिया । ये एक मूवी का नाम है । तकरीबन 4-5 महीने पहले ही सिनेमा घरो में आई थी । ये मूवी भी बस यु ही आई और चली गयी । कुछ दिन पहले मेरे एक सीनयर ने देखा और हमें भी देखने को कहा उन्होंने कहा के YMI देखना बहुत अच्छी मूवी है । मै DVD लाया और इस मूवी को देखा ........वाकई बहुत अच्छी मूवी है । इतनी अच्छी के चन्द शब्द लिखने का मन कर गया । न जाने क्यों लोगो के बीच इस तरह की फिल्म क्यों नहीं ज़यादा चर्चित हो पाती। शायाद इसलिए...........रोजमर्रा के जीवन को बहुत सच्चाई से दर्शया है । फिल्म में क्षेत्रवाद और धर्म सम्प्रदाय के निरर्थकता को बड़ी सरलता से पेश किया है । कहानी की शुरआत और अंत को बहुत बखूबी से जोड़ा गया है । इस फिल्म का एक -एक किरदार अपने रोल को बखूबी निभाया है । इस फिल्म की कहानी , निर्देशन और एडिट खुद N.CHANDRA ने किया है ।
December 28, 2009
दलित.........
आज भारत सबसे ज़यादा जातिवाद से पस्त है । ये एक ऐसा कीड़ा जो इंसान के दिमाग से निकलने का नाम ही नहीं लेता । और जातिवाद का सबसे ज़यादा फायदा राजनीति को होता है क्यूंकि यही एक मुददा है जिसके जरिये वोट बैंक बढया जा सकता है । अल्प संख्यक , पिछड़ी जाती , दलित ये कुछ ऐसे शब्द है जो वोट बनाते है । आज कल तो दलित शब्द खूब चर्चित हो रहा है । हो भी क्यों न आज उत्तर प्रदेश की सरकार दलित शब्द के प्रयोग का ही फल है के अच्छे से राज कर रही है । अब धीरे धीर और भी नेताओ को समझ आने लगा है की यदि उत्तर प्रदेश पर राज करना है तो सबसे पहले दलित को अपनाओ । ''दलित'' का किरदार तास के पत्ते की तरह हो गया है । आज राष्ट्र नेता राहुल गाँधी जी भी दलित शब्द को समझने लगे है । इसलिए दलितों के घर रात बिताते है और खाना भी खाते है । ये सब करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से ये जरूर अहसास दिलाते है की ''तू दलित है जिसका छुआ लोग पानी नहीं पीते है लकिन देख मैंने तेरे घर रात गुजारी और तेरे हाथ का बना खाना भी खाया '' । यदि आप जिस गाव में जाकर ये ढकोसला करते है । यदि उस गाँव की बिजली ,पानी और बेरोजागारो क लिए कोई रोजगार क समाधान निकाले तो उस गाँव में निवास कर रहे सामान्य से लाकर दलित तबके तक का भला होगा । लेकिन राहुल जी कभी आपने सोचा की आपके लौट आने के बाद भी वो वही दलित ही रहेते है जो पहले थे सिर्फ फर्क इतना हो जाता है उन्हें गुमान हो जाता होगा उनकी अपनी बिरादरी में के मेरे यहाँ राहुल गाँधी आये थे । इससे जायदा कोई फर्क नहीं होता होगा । लकिन उस दिन मीडिया को एक खबर मिलजाती है आपका नाम दलित शब्द के साथ जोड़ना का । ज़रा कभी सोचियेगा की जिस घर आप रुकते है खाना खाते है । उस घर में एक वक़्त की रोटी आती कहा से है । और ये सवाल सिर्फ एक दलित के लिए ही नहीं बल्कि उन भारत वासियों की लिए है । जिनको आज भी सिर्फ एक वक़्त का रोटी नसीब होती है । बेहतर हो की किसी जाती , धर्म या क्षेत्रवाद से बचकर एक उत्तम भारत की कल्पना के लिए राजनीत करें तो शायद इस पिर्थ्वी का सबसे अनोखा देश होगा हमारा भारत ।
December 27, 2009
गुब्बारा ले लीजिये ....
देवेश प्रताप
12 दिसम्बर की रात तक़रीबन 12 बज के 15 मिनट हुए रहे होंगे ....... हम तीन दोस्त मेरठ शहर में एक marriage हॉल के सामने खड़े होकर चाय पि रहे थे । तभी एक 8-9 साल का बच्चा हाथ में 7-8 गुबारे लिए हुए हम लोग के पास आया और बड़े ही मार्मिकता से उस बच्चे ने कहा कि ''गुब्बारा ले लीजिये'' । मेरे मित्र विकास ने कहा की गुब्बारा क्या करेंगे ....... और दया दिखाते हुए 5 रुपये निकाला और उस बच्चे को पकड़ाने लगे , बच्चे ने अपने आप को समझाते हुए और हम लोगो की तरफ देखते हुए कहा '' मैंने पैसा नहीं माँगा .... ऐसे पैसा लेने से भीख मांगने की आदत पड़ जाती है '' जिस मार्मिकता से उस बच्चे ने इन शब्दों को कहा उसका अहसास शब्दों में नहीं बयां किया जा सकता । हम लोग ने एक गुब्बारा लिया ....... गुब्बारा दे कर बच्चा आगे बढ़ गया और धीरे धीरे उसकी तस्वीर अँधेरी रात में धुंधला से दिखाई देने लगी ........ और हम तीनो दोस्त तब तक देखते रहे और उसी का बारें में बात करते रहे जब तक वो आँखों से ओझल नहीं हो गया ........... और फिर हम तीनो उसी गुब्बारे से खेलने लगे ....... ।
वक्त अहसास दिलाता ....
देवेश प्रताप
वक्त से बढ़कर कुछ नहीं । इस बात का अहसास अक्सर समय निकल जाने का बाद होता है । ऐसे ही कुछ वक्त की बीती हुई बातें मेरी भी है । बचपन से पता नहीं क्यों किताबो से कोई लगाव नहीं हो पाया । पढने में कभी मन ही नहीं लगता और जब भी कोई पढने के लिए कहता तो वो शब्द फासी की तरह लगते थे । मै उन किताबो को इस तरह घूरता था जैसे मेरी किताबो से कोई पुरानी दुश्मनी हो । लकिन वक्त की सूयियो ने ये अहसास दिलाना शुरू कर दिया की काश बचपन की किताबो से दोस्ती कर लिया होता । लेकिन फिर भी कहते है की ''जब जागो तब सबेरा'' आज maas communication & journalism की पढाई कर रहे है । आज कोई भी अच्छी किताब देख कर मन में उसे पढने के लिए उसी तरह बूख जागती है जैसे भूखे शेर के सामने हिरन का बच्चा हो । लकिन कभी-कभी आसीमित ज्ञान की वजह से अपने आप को अज्ञान रुपी कोठरी में पाता हु । और पछतावा होता है तो सिर्फ इस बात का की काश बचपन से ही अच्छे से पढ़ा होता तो शायद आज का वर्तमान और आने वाला भविष्य उज्जवल मय दिखाई देता ।
वक्त से बढ़कर कुछ नहीं । इस बात का अहसास अक्सर समय निकल जाने का बाद होता है । ऐसे ही कुछ वक्त की बीती हुई बातें मेरी भी है । बचपन से पता नहीं क्यों किताबो से कोई लगाव नहीं हो पाया । पढने में कभी मन ही नहीं लगता और जब भी कोई पढने के लिए कहता तो वो शब्द फासी की तरह लगते थे । मै उन किताबो को इस तरह घूरता था जैसे मेरी किताबो से कोई पुरानी दुश्मनी हो । लकिन वक्त की सूयियो ने ये अहसास दिलाना शुरू कर दिया की काश बचपन की किताबो से दोस्ती कर लिया होता । लेकिन फिर भी कहते है की ''जब जागो तब सबेरा'' आज maas communication & journalism की पढाई कर रहे है । आज कोई भी अच्छी किताब देख कर मन में उसे पढने के लिए उसी तरह बूख जागती है जैसे भूखे शेर के सामने हिरन का बच्चा हो । लकिन कभी-कभी आसीमित ज्ञान की वजह से अपने आप को अज्ञान रुपी कोठरी में पाता हु । और पछतावा होता है तो सिर्फ इस बात का की काश बचपन से ही अच्छे से पढ़ा होता तो शायद आज का वर्तमान और आने वाला भविष्य उज्जवल मय दिखाई देता ।
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