January 30, 2010

सबको बूराई ही क्यूँ नज़र आती है!!!!!!!!!!!






आज फिर वही साल पुराने दिन याद आते हैं, जब बड़ी कंपनी में जॉब थी और इतना व्यस्त हुआ करता था कि घर वालो को छोड़ कर किसी मित्र या जानने वाले का फ़ोन उठाना भी मुस्किल हो जाता था।

तब मेरे दोस्त मुझसे शिकायत करते थे कि यार तू तो बहुत व्यस्त हो गया है दोस्तों के लिए वक़्त नहीं है तेरे पास, बहुत गंभीर हो गया है अभी से ही

और १ आज का दिन है कि दोस्त ये कहते हैं कि तू सोचता नहीं है अपने भविष्य के बारे में। मुझे थोडा बुरा लगता है क्यूंकि अब मैं भरपूर वक़त दोस्तों को देता हु। जिससे शायद उनको लगता है कि मेरे पास फालतू वक़्त है

लेकिन मेरे समझ में ये नहीं आता है कि यही दोस्त थे जो मुझे पहले कहते थे कि तेरे पास वक़्त नहीं है, और अब जब इनके साथ मैं पूरा वक़्त देता हूँ तो कहते हैं कि तू अब फालतू हो गया है।

यार अच्छाई तो कोई देखता ही नहीं है सबको बूराई ही क्यूँ नज़र आती है।

हम अच्छा करें या बुरा, हमारे आस पास ऐसे लोग जादा होते हैं जो सिर्फ हमें हमारी बुराई ही बताते हैं, क्यूँ कोई हमारा हौसला नहीं बढ़ता है कि आगे बढ़ो अपने लक्ष्य को प्राप्त करो हम सब का सहयोग तुम्हारे साथ है।

जहाँ हमारी खामियां गिनानी होंगी वहां साब लाइन लगा के खड़े हो जाते हैं लेकिन जहाँ हौसला अफजाई और रास्ता दिखने की बात आती है वहां कोई नहीं होता।

January 29, 2010

दिल तो बच्चा है जी .....

देवेश प्रताप

प्यार एक ऐसा अनोखा बंधन जो उम्र का फासला नहीं जानता है .......प्यार में जब भी दि खोता है तो बच्चे जैसे हो जाता है हाल में इश्किया फिल्म में गुलज़ार साहब ने अपनी अनोखी रचना को पेश किया .......''..दिल तो बच्चा है जी थोडा कच्चा है जी '' बहुत ही सुंदर शब्द दिए है गुलज़ार साब ने .........और बोल दिया है राहत फते अली खान ने ....तथा संगीत से सवारा है विशाल भारद्वाज ने .......सचमुच इस संगीत सुन के बहुत अच्छा लगाबदलते वक़्त के साथ संगीत में भी काफी बदलाव आया है सभी गीत तो दिल तक नहीं उतर सकते है लकिन ये तो दिल में उतर गया.......पेश है गीत की रचना ....

ऐसे उलझी नज़र उनसे हटती नहीं
दात से रेशमी डोर कटती नहीं
उम्र कब की बरस के सुफेद हो गयी
कारी बदरी जवानी की छटती रही
वल्लाह ये धड़कन बढ़ने लगी है
चहरे की रंगत उड़ने लगी है
डर लगता है तनहा सोने में जी
दिल तो बच्चा है जी - 2 थोडा कच्चा है जी
दिल तो बच्चा है जी
ऐसे उलझी नज़र उनसे हटती नहीं
दात से रेशमी डोर कटती नहीं
उम्र कब की बरस के सुफेद हो गयी
कारी बदरी जवानी की छटती रही
रा रा रा रा ...

किस को पत्ता था पहलू में रखा , दिल ऐसा बाजी भी होगा
हम तोह हमेशा समझते थे कोई हम जैसा हाजी ही होगा
हाय जोर करके कितना शोर करे , बेवजह बातों पे एवे गौर करे
दिल सा कोई कमीना नहीं
कोई तो रोके , कोई टोके
इस उम्र में अब खाओगे धोके
डर लगता है इश्क में करने में जी
दिल तोह बच्चा है जी - (2)
थोडा कच्चा है जी , दिल तोह बच्चा है जी

ऐसी उदासी बैठी है दिल पे , हँसाने से घबरा रहे है
सारी जवानी कतराके कांटी , पीरी में टकरा गए है
दिल धडकता है तोह ऐसे लगता है वोह
आ रहा है यही देखता ही ना हो
प्रेम की मारे कतार रे
तौबा यह लम्हे कटते नहीं है क्यूँ , आँखों से मेरी हटते नहीं क्यूँ
डर लगता है मुझसे कहना नहीं

दिल तो बच्चा है जी - 2 थोडा कच्चा है जी
दिल तो बच्चा है जी

इस संगीत को सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें

फिल्म - इश्किया
रचना - गुलज़ार
गायक - राहत

January 28, 2010

मुझ में ऐसी क्या बात है ???

विकास पाण्डेय

अक्सर लोग कहते हैं अपनी प्रतिभा को पहचानते हुए किसी क्षेत्र में प्रवेश करो, सबसे पहले यह सुनिश्चित कर लें कि इस क्षेत्र में मै अपने क्षमता के अनुसार कार्य कर सकूँगा या नहीं फिर निर्णय लें आदि। अभी कुछ दिन पहले हमारे कॉलेज के सिनेमा के H O D {हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट } सर कहने लगे कि ''एक बार मेरे पास एक एक्टिंग सीखने कि चाहत रखने वाला एक लड़का आया, औ कहने लगा कि सर मुझे एक्टर बनना है, मैंने कहा कि लैंग्वेज ठीक करो, डिक्शन पर काम करो और डायलाग डिलेवरी पर पकड़ बनाओ। कुछ समय बाद जब मैंने देखा तो मेरी समझ में आया कि इसकी आवाज़ फटे बॉस कि तरह है और एक्टर बनना तो दूर ये तो ठीक से बोल भी नहीं पता है ,लेकिन कुछ चीज़े अच्छी लगी जैसे कि इसकी इमजीनेसन गज़ब कि है, खुद तो डायलाग ठीक से नहीं बोल पाता लेकिन आपने साथियों को बहुत अच्छी तरह से कहलवा लेता। वहीँ मेरी समझ में आया कि यह लड़का अभिनेता तो नहीं लेकिन अच्छा निर्देशक ज़रूर बन सकता है, फिर मैंने उसे सलाह दी कि तुम डरेक्सन पर ध्यान दो, खैर बात उसकी समझ में आ गयी और आज वह एक बड़ी फिल्म में अस्सिस्टेंट डायरेक्टर कि भूमिका में है'' उस लड़के के समझ में तो बात आ गयी लेकिन क्या हमारे समझ में आती है, और अगर आ भी जाती है तो अमल नहीं करते। ऐसा मेरे साथ जाने अनजाने में अक्सर हो जाता है ,ज्यादा दिन पहले कि बात नहीं है आज से लगभग ५ साल पहले जब मै दसवी पास कर लिया था तो मेरे सभी दोस्तों ने साईंस ग्रुप में जाने का निर्णय लिया,मुझे पता था कि मै साइंस के लायक नहीं हु लेकिन हमारे गावों में साइंस का बहुत क्रेज़ है जो लड़का इस विषय से पढ़ता था उसे बहुत ही अच्छे नजरो से देखा जाता था। बस इसी दिखावे में मैंने भी एडमिशन ले लिया। कुछ समय बाद यह लगा की बच्चू अब गाड़ी आगे नहीं चलेगी तो पीछे पलट कर देखा तो अभी फॉर्म भरे जा रहे थे मैंने फ़ौरन ही आर्ट ज्वाइन किया और जान छुड़ाई साइंस से। अभी चार दिन पहले की बात है मेरे किराये के आशियाने में मेरे बचपन के मित्र आये। {वैसे तो वो हम सब के बीच में डॉक्टर के नाम से जाने जाते हैं । यह नाम उनके कागजी नाम से ज्य़ादा जाना जाता है,और यह नाम उनको बहुत रास भी आता है}स्वभावतः हम सब गपशप करने लगे। तभी अचानक उन्होंने एक ऐसा प्रश्न किया कि जिसका जवाब जानने की जिज्ञसा सभी को होती है। उनका प्रश्न कुछ इस प्रकार था की'' यार मैंने सुना है की सभी के अन्दर कोई ना कोई छिपी प्रतिभा होती है, जिसे समझने की ज़रूरत होती है,"मुझ में ऐसी क्या बात है "मै तो हतप्रभ रह गया की इस प्रश्न का क्या उत्तर दू, लेकिन मैंने कोशिश की और कहा तुमको सब डॉक्टर कह कर संबोधित करते हैं और आज तुम सच में डॉक्टर की पढाई कर रहे हो और कुछ दिन के बाद प्रमाण सहित डॉक्टर हो जाओगे। मेरे गाँव में कुछ लोगो के नाम कुछ इस प्रकार हैं डी ऍम,कप्तान,दरोगा,डिप्टी। दोस्तों इस नाम से जुडी एक बहुत दिलचस्प बात याद आ गयी है जिसे मै बिना प्रकट किये रह नहीं पा रहा हू , एक बार कुछ लोग लड़के के लिए रिश्ता लेकर आये,कुछ देर बाद उन लोगो ने कहा की लड़के को बुलाइए,लड़के के चाचा जी वहां खड़े एक छोटे बच्चे से कहा की जाओ जा कर डी ऍम को बुला कर ले आओ,इतना कहते ही लड़की वाले चौक गए की मेरी इतनी हैसियत कहाँ की मै एक डी ऍम से आपनी बेटी की शादी कर सकू। फिर मैंने उस बात को आगे बढ़ाते हुए कहा की तुम तो बहुत किश्मत वाले हो की कहते कहते तुम सच में डॉक्टर हो गए वो लोग तो बस यु ही नाम के ही रह गए . मेरे इतना कहने पर वो मुस्कराते हुए जवाब में सर हिलाए।

आपकी प्रतिक्रियाओ का इंतज़ार रहेगा,
आलोचनाओ का सम्मान रहेगा

मेरी के0 जी0 = पिताजी की स्नातक





कल अपने बड़े भाई साहब से मिलने गया था। जाना अचानक ही हो गया था क्यूंकि मेरी जेब खली हो चुकी थी, मित्र मंडली में भी कोई ऐसा ना था जो मेरी कडकी को दूर कर पाता क्यूंकि जिनके पास पैसे थे उनके हम पहले से ही कर्जदार थे और जो बाकी बचे थे वो अपने जैसे कडके थे।

सो आखिरी उम्मीद बड़े भैया ही दिख रहे थे। मेरे बड़े भाई मेरे सगे नहीं मेरे बड़े पिता जी के लड़के हैं। उम्र में हमसे ८-९ साल बड़े होंगे लेकिन अपनी जमती खूब है उनसे। खूब चलती पान कि दुकान है उनकी रेलवे स्टेशन पर। उनकी शादी को १० साल हो गए, मेरे भतीजे कि उम्र ४ साल कि है और भतीजी कि १ साल है

बस से उतरा और सीधे दुकान पर चला गया, पहुँचते ही भाई से नमस्कारी कि और थोडा भूमिका बना के कुछ पैसे मागने कि जुगाड़ में लग गया। भाई समझ गए और ५०० के २ नोट मेरी तरफ बढ़ा दिए। पैसे लेने के बाद मैंने गौर किया कि भाई कुछ परेशान हैं आज, मैंने पूछा भाई क्या हुआ कोई बात है क्या जरा परेशान सेदिख रहे हो।

उनोहोने कहा हाँ यार मैं सोचा रहा हूँ कि मेरे पिता जी को तो अंग्रेजी आती नहीं है तो फिर उनोहोने मेरा दाखिला कैसे करवाया होगा स्कूल में। मैंने कहा कि आज कहाँ से ताऊजी कि अंग्रेजी याद आ गई आपको।

भाई ने बताया कि, यार कल स्टेशन पार वाले पब्लिक स्कूल में गया था सोनू के दाखिले कि बात करने तो मैंने कहा कि इसमे इतनी परेशानी वाली बात क्या है अभी तो १-२ महीने का वक़्त है दाखिला करवा देंगे।

भैया कहने लगे कि यार तुझे नहीं पाता ये पब्लिक स्कूल बस नाम से पब्लिक का दिखता है लेकिन है ये अंग्रेजो के लिए, और फिर काउंटर से १ किताब निकते हुए कहा, देख इसमे लिखा है कि अगर किसी बच्चे को के जी में भी दाखिला लेना है तो उसके माता पिता का इंटरविउ होगा, और अगर माता पिता इस्नातक नहीं हैं तो उनका इंटरविउ भी नहीं होगा, यानी कि जिसके माता पिता ने अच्छी शिक्षा नहीं प्राप्त कि हो, उनके बच्चे भी अच्छे स्कूल में नही पढ़ सकते।

मैंने कहा कि भाई तो आपको क्या दिक्कत है आप तो इस्नातक हो, तो भाई ने कहा कि यार तेरी भाभी तो 12th पास है। मैंने कहा भाई ये तो मुस्किल वाली बात है।

भाई बोले कि यार मैं तो जुगाड़ कर लूँगा किसी तरह से लेकिन सोचने वाली बात ये है कि आज हमारी सरकार दुनिया भर के ढोंग कर रही है कि साक्षरता लाओ अपने बच्चो को अच्छी शिक्षा दिलाओ और जाने क्या क्या लेकिन अगर १ अनपढ़ या कम पढ़ा लिखा आदमी अपने बच्चे का दाखिला अच्छे स्कूल में करवाने जाता है तो पहले उसका बायोडाटा देखा जाता है। इसका मतलब तो यही हुआ कि शिक्षा कि भी केटेगरी है। जिनके माता पिता पढ़े लिखे हैं सिर्फ उनके बच्चे ही अच्छे स्कूल में पढ़ सकते हैं, और जिनके अभिभावक नहीं पढ़े या कम पढ़े हैं उनके बच्चे भी वैसे ही दोयम दर्जे की पढाई करें या फिर अनपढ़ बने रहे।

मैंने कहा भैया गोली मारो यार अपने सोनू का तो दाखिला हो ही जाऐगा ना, दुनिया कि छोड़ो, मैं फिर भाई के पास से निकल गया और बस स्टॉप आ गया, वापस अपने फ्लैट आने के लिए बस का इंतजार करने लगा और मन में ये सोच रहा था कि मैंने जो स्नातक की पढाई आखरी साल में छोड़ दी थी उसको किसी भी तरह पूरा करना है ताकि कम से कम मेरा बच्चा तो पब्लिक स्कूल में जा सके।

January 27, 2010

आज भी असमंजस में रहते है .......

देवेश प्रताप

जाने क्यों मुझे ले कर घर वाले आज भी असमंजस में रहते है के आगे की ज़िन्दगी में कुछ कर लेगा या नहीं क्यूंकि जो उन्होंने चाहा वो कभी कर नहीं पाया शुरू से मेरे घर वाले कहते थे के मै I.A.S बनू लेकिन मै अपने आपको पहचानता था की मै I AS नहीं बन सकता क्यूंकि पढ़ाई से मै हमेशा दूर भागता था वो व़क्त था जब ज्ञान से वाकिफ नहीं था मै हमेशा याद करने जैसे विषय से दूर रहता था मुझे वो विषय अच्छे लगते थे जिसमें अपना मत देना हो कुछ भी रटा -रटाया हो इलाहाबाद विश्वविद्दालय से स्नातक दुतीय वर्ष छोड़ कर जन संचारिता करने दिल्ली चले आये क्युकी वहा भी वो संतुस्टी नहीं मिल रही थी जो मै चाहता था घर वाले आपनी आशाओ का आशियाना टूटते देखा जो की मुझमें वो अपने सपने देखा करते थे मै ख़ुद सहमा था इस नए सफ़र के लिए क्यूंकि ये आखरी मौका था पने आप को साबित करने का खैर इस नए रास्ते पे चले तो आये लेकिन अपने घरवालो की उम्मीदों के दरवाजे पर ताला लगा कर उनके हर एक सपने को शीशे की तरह चखना चूर कर दिया आज जब भी उनके सामने जाया करता हु उनकी नजरो में आपने आपको केवल एक प्रश्न चिन्ह की तरह पाता हु शायद उनका ये प्रश्न चिन्ह लाज़मी है क्युकी अभी तक किसी भी उम्मीद पर ख़रा नहीं उतरा लेकिन मैंने भी ये तय किया है के उस प्रश्न चिन्ह को गुमान में बदल कर रहंगे शायद इस बात के लिए थोडा सा व़क्त लगे .........ये कुछ पंक्तिया जो मन में लहरों की तरह उठती रहती है


हर
सफ़र में कांटे बिछे होते है
अक्सर वो कांटे पैरों में चुभा करते है

दर्द होता है जब कांटो को हाथो से निकाला करते है
सहन तब नहीं होता जब अपने खड़े होकर निहारा करते है

मुश्किलें आसान नहीं होती रास्ता ख़ुद तय करने से
सीढिया कम नहीं होती मंजिल तक पहुँचने में

देवेश प्रताप


January 25, 2010

ये तिरंगे तेरी चमक को .........



गड़तंत्र दिवस पर पे है एक छोटी सी रचना जो पूरी तरह से इस भारत की शान तिरंगों को समर्पित है . इसमें जुड़ी इस विडियो को देखे जो को मोबाइल फ़ोन के कैमरे से तिरंगे के प्यार को दर्शया गया है ।


तिरंगे तेरी चमक को हम सलाम करते है ॥
तेरी रक्षा में अपने खून को तेरे नाम करते है ॥

तुझे झुकने नहीं देंगे ये ऐलान करते है ।
तेरे साये में ख़ुद को बलिदान करते है ॥

तेरे खिलते हुए रंग को देख कर हम भी झूमा करते है
तेरी खुशी के लिए कुर्बान हुए सैनिको को याद करते है ॥

विश्व में लहराता रहे इसी तरह यही हम कल्पना करते है ।
ए तिरंगा तेरी चमक को हम सलाम करते है



देवेश प्रताप

अपनी कैटेगिरी तो बता ...........................






काल सुबह मैं करीब ८ बजे उठा और अपना नेट ओन किया की चलो होली में घर जाने की रेलवे टिकेट बुक कर लू, क्यूंकि हमारे घर की तरफ गिनती की २ ही रेलगाड़ियों की सेवा है। रेलवे की ऑनलाइन बुकिंग वेबसाइट खोली और मैंने खली सीट्स चेक की, गिनती की १०-१२ सीट ही खली थी १ ट्रेन में और दूसरी में कोई सीट नहीं थी। इतने में मेरे यहाँ लाइट चली गई, मैंने सोचा की लाइट का कोई भरोसा नहीं है चलो reservation काउंटर से हे टिकेट ले आता हूँ। मेरे घर के सामने हे aaims हॉस्पिटल है वहां पर reservation काउंटर है। 8:३० तक मैं काउंटर पर पहुच गया, वहम मेरे आगे ३-४ लोग और खड़े थे मैंने फॉर्म लिया और उसको भरा फिर अपनी बारी की प्रतीक्षा में लाइन में खड़ा हो गया।
अब मेरा नंबर आने hee वाला था क्यूंकि मेरे आगे वाले व्यक्ति ने अपना फॉर्म टिकेट बनाने वाले ऑफिस को दे दिया था और वो अपनी जेब से पैसे निकल रहा था टिकेट के।
इतने में टिकेट बनाने वाले ऑफिसर ने अंदर से मेरे आगे खड़े हुए व्यकी से कहा की तुम आदमी हो या औरत, फॉर्म में जगह dee गई है जहाँ साब साफ़ लिखा है की आदमी हो या औरत अंकित करो।
मेरे सामने वाले व्यक्ति ने बड़े ही लहजे से जवाब दिया की सर आपको जो भरना हो भर दो उस जगह पर।
अंदर वाले ऑफिसर ने उसका फॉर्म फेकते हुए कहा की ऐसे कैसे भर दू मैं तुम जाओ इसको भर के लाओ, और चुटकी लेते हुए कहा की क्या तुमको ये भे नहीं पता की तुम आदमी हो या औरत।
मुझे ये सब ड्रामा देख के बहुत गुस्सा आ रहा था क्यूंकि मुझे मालूम था की जितनी देर होगी सीट फुल होने का खतरा उतना ही जादा है, तो मैंने अपने आगे वाले व्यक्ति से कहा की यार तू पुरुष लिख के देदे मुझे भी टिकेट लेनी है देर होगी तो सीट नहीं मीलेगी।
तो उसने कहा की कैसे पुरुष लिख दू , तो मैंने कहा की यार पुरुष नहीं लिख सकता है तो स्त्री लिख de लेकिन जल्दी कर और भी लोग लाइन में हैं। तो उसने कहा की मैं वो भे नहीं लिख सकता, मेरी कैटेगिरी इस फॉर्म में है ही नहीं। मैं झल्ला गया और मैंने गुस्से में कहा की क्यूँ बे हिजडा है क्या, उसने टपक से जवाब दिया हैं सही समझे हिजड़ा ही हूँ।
उसके बाद वो लाइन से गया और मैंने अपनी टिकेट ली, १ आर ऐ सी मिली।
वापस आते हुए रास्ते में मैं सोच रहा था की मुझे उस इंसान को ऐसे हिजड़ा नहीं बोलना था। फिर मेरे मन में ख्याल आया की जब वो इंसान भारत का नागरिक ,है और उसको भारत के संविधान के अनुसार सारे हक़ और मौलिक अधिकार प्राप्त हैं तो उसकी कैटेगिरी क्यूँ नहीं है फॉर्म में।
मैंने घर आया तब तक लाइट आ चुकी थे मैंने नेट ओन किया और रेलवे की साईट खोली और वहां पर दिए गए reservation फॉर्म को भे चेक्क किया उसमे भी सिर्फ पुरुष और स्त्री कैटेगिरी थी ।
मैंने सोचा की ये क्या ना इंसाफी हो रही है इन किन्नरों के साथ, इनको हमारी सरकार मौलिक अधिकार से ही वंचित रख रही है।
मैंने हिस्टरी में पढ़ा था की पहले राजा की रानियों के सेवक किन्नर हुआ करते थे, और ये युद्ध भे लड़ा करते थे और राजाओ के दरबार में उचे पद पर रहते थे।
लेकिन आज इनकी क्या हालत है की इनको इज्ज़त की जिंदगी जीना भी मुस्किल हो गया है, जब हमारी सरकार ही इनको इस लायक नहीं समजती की इनको इनके संविधानिक हक़ दे, तो क्या होगा इनका?
मैं तो इन लोगो के साथ घटित हो रही गलत चीजो की १ घटना का साक्षी हु, लेकिन रोज हे इन लोगो के साथ जाने क्या क्या घटता होगा ।

युवा का सफ़र ........

देवेश प्रताप

इंसानी ज़िन्दगी में सबसे दिलचस्प सफ़र बचपन के बाद शुरू होता है यानि जब युवा अवस्था में कदम रखता है जब बचपन अपनी विदाई की ओर होता है तो आने वाला युवावस्था सफ़र के लिए मन में एक रोमांच भरा होता है यही से जिंदगी की मंजिल की तरफ जाने का रास्ता तय करना होता है भावानों का समन्दर भी इसी उम्र में हिचकोरे लेता है रगों में ऐसा खून दौड़ता है जो सिर्फ जीतना जानता है दुनिया जीत लेने की उम्मीद इस उम्र हर किसी को होती है क्यूंकि दुनिया को जानने का सिलसिला जो यही से शुरू होता इस उम्र जोश इस तरह से पनपता है जैसे आम के पेड़ में पहेली बार बौर लगता है इस उम्र में हर पल पे इतनी फिसलन मिलती है के चूकने के देर हो और दुनिया बदल जाती है कुछ कर दिखाने और दुनिया को बदल डालने का ज़ज्बा इसी उम्र में इस कद्र होता है जैसे समन्दर की चौड़ाई और आस्मां की उचाई हाथो और पैरो के बराबर हो इस उम्र में प्रकृति ऐसी उर्जा शायद इसलिए देती है के आगे की ज़िन्दगी को एक खूबसुरत सा मक़ाम मिल सके

January 22, 2010

ख़ुद को बदलते देखा है .......

देवेश प्रताप

दोस्तों भावनो को व्यक्त करना सबसे जटिल होता है ऐसा मै समझता हु ये चार पंक्तिया जो मैंने लिखी है शायद इन पंक्तियों वो परिपक्वता हो लकिन भावनो का पूरा मेल है ये मेरी पहेली कविता है जो सीधा इस ब्लॉग पैर मैंने लिखा है इस पंक्ति की तीसरी और चौथी लाइन लिखते वक्त आँखे नम होगयी .................... इस कविता पर अपने विचार ज़रूर प्रकट करियेगा



गाँव की धूल मिटटी में बचपन को खिलते देखा है
आज शहर की गलियों में खुद को भटकते देखा है

जब था आपनी माँ के पास उनके आँचल में सो कर देखा है
आज हु मै अपनी माँ से दूर उस आँचल के लिए तरसते देखा है

बचपन के साथी से वादों की लकीर खीचते देखा है
आज उन्ही साथी को वो लकीरे मिटाते देखा है

कभी किसी के प्यार में खुद को तड़पते देखा है
आज उसी के प्यार में खुद को गिरफ्त होते देखा है

आईने में अपने आप को बदलते देखा है
दुनिया के इस रंगमंच पर ख़ुद को खेलते देखा है

देवेश प्रताप

January 19, 2010

दोस्ती @ २०रु प्रति महिना........................





दोस्ती दुनिया का शायद सबसे भरोसेमंद शब्द हैं। सच्चा दोस्त बनाने में हमें कितना टाइम लगता है, शायद १ दिन, १ महिना, १ साल या फिर कई बार हमें जीवन भर ऐसे   दोस्त की तलाश रहती है जिस पर पूरी तरह से भरोसा किया जा सके,  जो दोस्ती के हर आयाम पर खरा उतर सके।

लेकिन आज मुझे सच्चे दोस्त पाने का १ बहुत ही अच्छा ऑफर मिला वो भी बिना किसी मेहनत के।
हुआ यु की आज दोपहर मैंने जैसे ही अपना लंच खत्म किया और सोचा की १ वेबसाइट अपडेट कर दू , जो की बहुत ही जरुरी थी क्यूंकि client सुबह से कई दफा कॉल कर चूका था, मैं पेशे से वेबसाईट डिजाईनर हूँ।

मैंने अपना कंप्यूटर ऑन किया और पूरा मूड बना के काम में जुट गया, तभी मेरे मोबाइल में १ अनजान नंबर से कॉल आई ............ १ बार तो मूड काफी ख़राब हुआ और गुस्सा भी आया की काम के वक़्त किसकी कॉल आ गई, फिर मुझे लगा की शायद किसी client या किसी मित्र की भी हो सकती है। मैंने कॉल उठा ली। सामने से मादक आवाज में १ महिला की रेकॉर्डेड कॉल चालू हो गई। उस कॉल में मुझे जो ऑफर मिला वो कुछ यूँ था :-
"अकेले हो, दोस्ती करोगे मेरे साथ. मैं भी बहुत अकेली हूँ, बहुत तनहा हूँ, मुझे अपना सच्चा दोस्त समझो और मेरा साथ पाने के लिए १ दबाओ और सिर्फ २० रु में पाओ मुझ जैसे और भी दोस्तों का साथ पुरे महीने के लिए । क्या हुआ, नहीं बनोगे मेरे तन्हाई के साथी, सिर्फ २० रु प्रति महिना। "

फिर कॉल कट दी मैंने और सोचा कि कितने गिरे दिन आ गए हैं अब दोस्ती महीने के हिसाब से करने का ऑफर आ रहा हैं।
मैंने ये पोस्ट इसलिए लिखी है क्यूंकि मुझे उस वक़्त ये ख्याल आया   कि कहीं अगर ये कॉल मेरे सिवा मेरे किसी छोटे भाई ने या किसी छोटे बच्चे ने उठाई होती तो उसके दिमाग पर क्या असर होता इसका। क्या सिख मिलती उसको जीवन में कि अब दोस्ती भी पैसों में मिलने लगी वो भी साल में जिस महीने में चाहो लो दोस्ती और जिस महीने में ना मान करे ना लो।
"और यही कॉल कहीं किसी बुजुर्ग ने उठाई होती तो वो क्या समझते कि आज का हमारा आधुनिक समाज कहाँ जा रहा है क्या हम आधुनिकता कि दौड़ में अपने असली परिवेश को कहीं खो दिया है. आज के इस आधुनिक युग में संवेदनाओ का कही कोई स्थान नहीं रह गया है। "
आज हमारे देश में हर सेल्लुलर कंपनी ऐसे भद्दी हरकत कर रही है। इनको किसी के व्यक्तिगत  जीवन से कोई मतलब नहीं है।
अगर हम इनकी ऐसे हरकतों की शिकायत भी करते हैं, तो हमको सलाह दी जाती है की हम डी न डी यानी डू नोट डीस्त्र्रब का प्रयोग करे।  अगर हम "डी. न. डी. " do not disturb सेवा का उपयोग भी  करना चाहे तो, उसको इस तरह से बनाया गया है कि "डी. न. डी. " लागू होने में ४५ दिन का वक़्त लग जाता है, कुल मिला कर ये समझ लिजिये कि जो इंसान थोडा जानकार है उसको तो ४५ दिन में छुटकारा मिल सकता है? लेकिन जिसको इस सुविधा कि जानकारी नहीं है उसको तो झेलना पड़ेगा ही।
पैसे कमाने के लिए माहोल को बिगड़ना और हर हद को पार कर देना नैतिकता के खिलफ है। लेकिन ऐसा करने वालो के सर पर हमारे देश कि सरकार का हाँथ होता है।
ऐसे में एक आम आदमी ऐसे चीजो के खिलफ सिर्फ रेकुएस्ट ही कर सकता है बाकी उसे हाँथ में कुछ नहीं है।

January 18, 2010

घर जा कर हमें भूल गए


विकास पाण्डेय

मै उत्तर प्रदेश के शहर प्रतापगढ़ का रहने वाला हु, जीवन का बीस साल अपनी जन्मभूमि प्रतापगढ़ में रहा आज पिछले तीन साल से हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली में जनसंचारिता और पत्रकारिता कर रहा हू कॉलेज में जब जब आवकाश होता है,मेरा मन शीघ्र ही घर जाने को मचलने लगता है . मेरे पिता जी तीन दशको से दिल्ली में ही रहते हैं और कारोबार रूपी पौधे को लगाया है और बड़े ही परिश्रम से सीचा है और इस लायक बनाया की उसके फल का लुत्फ हम सारे परिवार के सदस्य उठा सके मै अपने दिल्ली वाले घर से दूर दिल्ली और नॉएडा के बोर्डर पर अपने मित्र के साथ रहता हु जहाँ से मेरा विद्दालय १२ से १५ मिनट के अंतराल पर है. अभी सर्दियों की छुट्टी में गावं से मेरी छोटी बहने दिल्ली आई थी उसी दौरान मुझे किसी काम से मुझे महज दो दिन के लिए प्रतापगढ़ जाना पड़ा दो दिन बाद जब मै घर से स्टेशन के लिए आपने सामानों को सुवय्वाथित कर ही रहा था तभी शर्ट कि जेब से विचलित[क्येकि मेरे चहेरे छोटे भाई ने मोबाइल से वो जानी पहचानी सिंग टोन को बदल कर कुछ बच्चो जैसा लगाया था ] कर देने वाली आवाज़ सुनी देखा तो वो मोबाइल से ध्वनी तरंग उठ रही थी,जब मैंने जवाब में स्क्रीन पर बने एस को छू कर हेल्लो कहा तो वहां से मेरी छोटी बहन की आवाज़ आई भैया आप वहां जा कर हम सब को भूल गए.अब मै क्या कहता बात जो सही कह रही थी . लेकिन फिर भी मैंने कहाँ नहीं तो यहाँ आने के बाद समय कहाँ मिला खैर वहां के बाद जब मै घर में सबसे मिलते जुलते घर से निकला तो एक बात बहुत ही परेशान किये जा रही थी कि मुझे माता जी,पिता जी और छोटी बहनों कि याद क्यों नहीं आई.अभी से ये हाल है तो बाद में क्या होगा[आये दिन अखबार में,बड़ो के मुह और आध्यत्मिक गुरुओ के मुखार बिन्दुओ से यह सुनने को मिलता है कि आज के बच्चे आधुनिक होते जा रहे है और उनका आपने घर वाले से स्नेह,लगाव बहुत कम होता जा रहा है]मन में चल रहे उलटे पुलते विचारों से अपने आप में ग्लानी महसूस हो रही थी,कि ऐसा क्यों हुआ, गावं कि कच्ची सड़को को बाद फिर शहर कि भीड़ में रास्ता तलाशने के साथ साथ मन में चल रहे इस बात का उत्तर पाने में भी सफल हो रहा था और अंत में कुछ बाते स्पष्ट हुई कि इसमें मेरा नहीं मेरा पिताजी और मेरे घर वालो कि ग़लती है कि बचपन से ही जो संयुक्त परिवार के परिवेश में पला बड़ा,चाची जी,माता जी,और दादी में कभी कोई अंतर समझ नहीं आया,सात बहनों और छः भाइयो के बीच सगे से भी बढ कर स्नेह रहा.बचपन में तो ऐसा लगता था कि सभी का घर ऐसा ही होता है ,लेकिन ऐसी भ्रांतियां दूर हो जाती थी जब आपने ही पड़ोस में लोगो को लड़ते सुनता और देखता था.संयुक्त परिवार की खुशियों भरे पलो का बालमन पर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा था कि आज भी जब उन लम्हों को याद करता हु तो आनंद कि अनुभूति होती है और अपने आप को बहुत भाग्यशाली समझता हु,जो मुझे संयुक्त परिवार का हिस्सा बना..

आपकी प्रतिक्रियाओ का इंतज़ार रहेगा,
आलोचनाओ का सम्मान रहेगा




January 16, 2010

क्या इच्छा से परे है .......परीक्षा ?

देवेश प्रताप
हाल ही में महाराष्ट्र राज्य के अंदर बच्चो के आत्महत्या करने के कई मामले सामने आये । ये तो ताज़ा ख़बरे है महाराष्ट्र की लेकिन ऐसे मामले पुरे भारत देश में लिए जाये तो कई बच्चो ने आत्महत्या को अंजाम दिया । आखिर इस तरह कल के भविष्य क्यों वो अपने आपको वर्तमान में ही नष्ट कर दे रहे है । अक्सर ऐसी घटनाएं परीक्षा शुरू होने के पहले या फिर परीक्षा का परिडाम आने के बाद होती है और कारण भी शायद यही होता के मानसिक तनाव के कारण ये घटना हुई । ''परीक्षा'' इस शब्द को शायद आपने आप को भी व्यक्त करने में परीक्षा देनी पड़ती है । अभिभावक अपने बच्चो से यही आशा करते है की '' मेरा बच्चा टॉप करें '' किसी भी तरह से क्यूंकि समाज उन्हें ये साबित करना है की हम अपने बच्चे को सबसे उच्च शिक्षा दे रहे है और मेरा बच्चा सबसे तेज़ है पढने में । खैर ये तो सभी माँ- बाप का सपना होता है की उसके आँखों का तारा ऐसे चमके के उसके चमकने के रौशनी पूरे संसार पर पड़े ।
मेरे साथ भी ऐसा कुछ था जब भी परीक्षा नजदीक आती मेरे घर वाले कहते '' इस बार अच्छे अंक आने चाहेयी " मै बोलता था ठीक है इस बार कोशिश करूँगा । लेकिन मै ख़ुद आपने आप को जनता था के मेरे अच्छे अंक नहीं आयंगे क्यूंकि कोई भी विषय मै रट नहीं पाता था । मै उत्तर वही लिखता था जो मुझे समझ आता था और शिक्षक भी कसम खाए रहेते थे । की जो भी अपने मन से उत्तर लिखेगा उसे कम अंक देंगे चाहे उत्तर उसी तात्पर्य पर हो ।
भारत देश की शिक्षा प्रणाली ज्ञान की आपेक्षा अंक पर ज्यादा महत्व देती है । इसी बात को ध्यान में रखते हुए अभिभावक से लेकर शिक्षक तक केवल बच्चो के कान में एक ही शब्द डालते है के ......इस बार अच्छे प्रतिशत लाना है और पूरा कॉलेज टॉप करना है । बच्चो के नाजुक से कंधो पर आशाओ का ऐसा बोझ लाद दिया जाता है जो बेचारे नन्हे से कंधे उठाने में असमर्थ हो जाते है ।

January 13, 2010

हमारी जात एक है पर बिरादरी नहीं ..................

रमेश मौर्या

जाने कैसे हमारे आज के सिद्धांत और विचार कल आते आते बदल जाते हैं. या यूँ कहा जाए की इंसान का कोई सिद्धांत नहीं है , इंसान हर पल अपनी बात से मुकरने वाला जीव है. जो अपनी सहूलियत के हिसाब से अपने आराम के हिसाब से हर सिद्धांत को हर मान्यता को बदल देता है.
पिचले दिनों कुछ ऐसा हुआ जिससे मुझे ये समझ आया की इंसान का कोई भरोसा नहीं है.
बात मेरे बचपन से शरू होती है, मेरे पिता जी सामाजिक आदमी हैं और सामाजिक कार्यों से जुड़े रहते हैं हमेशा . हमारे सहर में कोई भी सामाजिक सभा होती तो वहां जरुर जाते थे और अगर मेरे स्कूल की छुट्टी होती तो मुझे भे साथ ले जाते, जहाँ बड़े बड़े नेता और समाज के वरिष्ट लोग आते थे, और अपने भाषण देते थे.
मैं अपने पिता जी के साथ बहुत से ऐसे सामाजिक भीड़ में गया हूँ, वहा पर मुझे कुछ समझ तो आता नहीं था की ये नेता लोग क्या भाषण दे रहे हैं, मैं अपने पापा से अक्सर पूछा करता था की पापा ये लोग क्या बताते हैं तो मेरे पिता जी कहते की बेटा इनको धयान से सुना करो,ये हमें मिलजुल कर रहने की बात बताते हैं. ये हमें सिखाते हैं की जात पात कुछ नहीं होती है सब मनुष्य एक सामन है और भगवन भी १ ही है. हमें कभी किसी के साथ भेद भाव नहीं करना चाहिये और सब के साथ प्रेम से मिल कर रहना चाहिये.
आज भी मेरे पापा का वही सिलसिला जारी है अब वो सिर्फ भीड़ में बैठ के भाषण ही नहीं सुनते बल्कि खुद भी stage पर खड़े हो के और हाँथ में माइक ले कर लोगो को एक साथ रहने और आपस में भेद भाव ना रखने का ज्ञान बताते हैं.
मैं आज भी जब अपने घर जाता हु तो कभी कभी जब मौका मिलता है तो ऐसे सामाजिक सभा में जाता हूँ. बचपन में समझ में नहीं आता था लेकिन अब सब समझ में आत है और ये सब देख सुन के बड़ी ख़ुशी होती है की हम लोग जात पात छोड़ने की बात करते हैं भेद बहव ख़तम करने के बारे में सोचते हैं....................??????????
मैं जब इस बार अपने घर गया तो हमारे घर में अजीब सा माहोल था कोई पूंछने पर कुछ बता नहीं रहा था, मैंने अपनी अम्मा से पूछा की क्या बात है. तो उनोहोने बड़ी मुश्किल से बताया की तुम्हारे भैया ने खुद १ लड़की पसंद की है और उससे शादी करने को कह रहे हैं.
तो मैंने कहा की शादी तो वैसे भी आप लोग उनकी करने की सोच ही रहे थे अब लड़की खोजने नहीं पड़ेगी जब उनोहोने खुद ही पसंद कर ली है तो.
मेरी माँ ने रोते हुए कहा की नहीं वो लड़की ठीक नहीं है, मैंने पूंछा क्यों क्या वो लड़की पढ़ी लिखी नहीं है या अभी शादी के लायक नहीं है, क्यूंकि मेरी नज़र में लड़की ठीक ना होने का यही तो कारण था.

लेकिन माँ ने बताया की वो हमारे बिरादरी की नहीं है. वो हमसे नीची जाती की है.

तो मैंने कहा की है तो हिन्दू ही ना और जब हामरे घर आ जाऐगी तो हमारी बिरादरी की भी हो जाऐगी.
तब तक मेरे पिता जी आ गए और मेरी बात को सुनाने के बाद कहा की बिलकुल सही जा रहे हो बेटा, हम तुमको इसलिए लिए बहार भेज के पढ़ा लिखा रहे हैं ताकि तुम आ के हमको जात बिरादरी का ज्ञान दो और किसी और जात की लड़की ला के हमारे घर की बहु बना दो . एक बात सुन लो शादी वही होगी जहाँ हमारी जात बिरादरी मिलेगी.

मैंने कहा, पिता जी बिरादरी से क्या होता है वो भी हिन्दू है और हम भी और सबसे बड़ी चीज है की वो भी तो इंसान की हे बेटी है कोई और जीव जंतु तो नहीं.

मैंने कहा पापा आप से जो सुना और सिखा वही बात कर राहा हूँ, आपने हे बचपन में बताय था की जात पात और उंच नीच कुछ नहीं होता है और सारे इंसान १ सामन है और हमें सबका आदर और इज्ज़त करना चाइए. फिर आज आप अपनी ही बात से क्यूँ मुकर रहे हैं.
मेरे पिता जी ने बस इतना ही कहा कि, ये समाज की बात नहीं है ये मेरा घर है और यहाँ वही होगा जो मैं चाहूँगा.
फिर मैंने उनसे कोई बहेस नहीं की बस यही सोचता रहा है जिस इंसान को मैं बचपन से ले कर आज तक समाज की बात और जात पात हटाओ भेद भाव मिटाओ जैसे बात करते और लोगो को समझाते देखता रहा, आज वही इंसान कैसे अपनी हे कही हुए बात से मुकर रहा है.

January 10, 2010

पागल हो क्या ...............................


रमेश मौर्या
पागल हो क्या या फिर तुम बेवकूफ हो, ऐसे जुमले हमें अक्सर सुनाने को मिलते हैं, उनसे जो हर काम में खुद को दुसरे से जिअदा अच्छा समझते हैं। देखा अक्सर ये गया है की हम कोई भी काम कर रहे हो अगर ऐसा कोई महान व्यक्ति हमारे आस पास है तो वो हमें पागल या बेवकूफ बना के उस काम में अपनी कुशलता सिद्ध करने की कोसिस करेगा।
अब कल के घटना क्रम को ही बताता हू। हुआ यूँ की मैं अपने कंप्यूटर पर बैठा कुछ ब्लॉग पोस्ट कर रहा था। तभी एक ऐसे हे महान आत्मा का आगमन हुआ मेरे कमरे में, ही उनके मुख से जो पहले अमृत वचन निकले वो थे, क्या यार जब देखो बेवकूफों की तरह तुम ये सब लिखने में लगे रहते हो कोई पढ़ता भी है।
मुझे थोडा झल्लाहट हुए की, बन्दे ने न दुआ न सलाम बस आते हे मुझे बेवकूफ बना दिया। खैर मैंने उनकी इस तरह की टिपण्णी पर कोई जवाब नहीं दिया। मैंने बस उनको आँखों से इशारा किया की अब आ ही गए हो तो बैठो।
जनाब मेरे कमरे में लगी चारपाई पर बैठ गए। उनके बैठने के बादमैं यह सोच रहा था की ये बन्दा या तो कुछ बोले न और अगर बोले भे तो मेरे ब्लॉग लिखने के विषय में न बोले। लेकिन थोड़ी देर बैठने के बाद उनोहोने मुझसे सवाल puncha, यार रमेश ये बता जो तू लिखता रहता है रोज किसी न किसी विषय पर तो इससे क्या होता है, क्या कोई इसको पढ़ता भी है, या बस बेवकूफों की तरह लिखते हे रहते हो।
अब मैं क्या जवाब देता उनकी बात का मैं चुप था कुछ नहीं बोला और लिखता रहा। वैसे भे इनके आने के बाद मैं जो लिखना चाहता था उसमे से मेरी एकाग्रता भंग हो चुकी थी लेकिन मुझे इनकी बात का जवाब न देना पड़े इसलिए मैं बेमान से लिखे जा रहा था।
थोड़ी से जब उनको मेरी तरफ से कोई जवाब नहीं मिला तो उनोहोने कहा की आचा बता कितने लोग पढ़ते हैं तेरा ब्लॉग यार सब बेकार है , तू पागल है फालतू में समय बर्बाद करता है ।
मैं अब भे चुप था खुद को रोके हुए, फिर थोड़ी देर बाद वो मेरे पीछे खड़े हो गए आ के और मेरा ब्लॉग देखते हुए बोले की, यार १ बात है कोई पढ़े या न पढ़े ये सब चीजे मालूम होनी जरुरी है। आज पूरी दुनिया ब्लॉग्गिंग कर रही है, हो सकता है कल किसी ने मुझसे सवाल कर दिया की ब्लॉग्गिंग कैसे करते हैं तो बता नहीं पाया तो फिर इज्ज़त ख़राब होगी। तो तू ऐसा कर की मेरे लिए भी १ ब्लॉग बना दे मैं भे लिखा करूँगा।
उनके इतना कहने के बाद मैंने सोचने लगा की ये बंद अभी थोड़ी देर पहले मुझे इसी काम के लिए गलियां दे रहा था और अब मुझसे कह रहा है की मुझे भी लिखना है।

कहने का तात्पर्य ये है की ऐसे लोग हमारे आस पास रहते हैं जो पहले किसी भे काम की बुराई करते हैं फिर खुद उसे काम के लिए तयार हो जाते हैं ।

January 9, 2010

लानत है ऐसे लोगो पर .....

सुबह के शुरुवात अक्सर समाचार पत्र से होती है । आज के अखबार की एक खबर जो मन को झकझोर दिया । तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले में राज्य पुलिस का एक sub inspector पर कुछ आपराधियों ने हमला कर दिया । जिससे वो गंभीर रूप से घायल होगया था । खबर के अनुसार थोड़ी देर बाद वह से मंत्रियो का काफिला भी गुजरा । इंसानियत के नाते मंत्रियो ने रुक केर देखा लकिन एक मंत्री होने के नाते उसकी मदद के लिए अम्बुलेंस को फ़ोन भी किया गया । सिर्फ फ़ोन किया गया बड़ा ताज्जुब लगा ये पढ़ कर एक राज्य का मंत्री और काफिले का साथ मजूद सरकारी अधिकारी .........उस जांबाज़ पुलिस के लिए सिर्फ अम्बुलेंस को फ़ोन किया । इंसानियत के नाते ये देखते की एक व्यक्ति अपनी मौत से जूझ रहा है। उसकी मदद के लिए तो शरीर की फुर्ती 4 गुना बढ़ जानी चाइये थी और समय को ललकारते हुए अपनी गाड़ी पर सवार करके गाड़ी की रफ़्तार बढ़ते हुए हस्पताल पुहचाना चाइये था । शायद ये सब न करने से उस जांबाज़ सिपाही से मौत जीत गयी । अरे लानत है जो वह पर मजूद होकर ये सब नजारा देख रहे थे । गलत जगह पर अक्सर सारे protocal तोड़े जाते है । लेकिन जब बात अच्छाई की होती है या किसी भी भले काम की होते है तो सारे protocal ध्यान में रखे जाते है । खबर पढने में ये भी था का उस समय उस जिले के ज़िलाधिकारी भी पहुच गए थे भगवान् के माया भी देखिये उस पुलिस की मदद के लिए सबको मौजूद कर दिया था । लेकिन सब के सब केवल नज़ारा देख कर रहगये.....................हद है दिखावे की ज़िन्दगी ..........आगे शब्द नहीं ऐसी लोगो के लिए कुछ लिखे ...

January 7, 2010

अपने ही देश में सहम गयी है ... .......

देवेश प्रताप

2 दिन से इन्टरनेट में कुछ समस्या चल रही थी । समस्या का समाधान के लिए ग्राहकसेवा (custmer care ) में फ़ोन किया । फ़ो के दूसरी तरफ .से आवाज़ आई ....
दुसरे तरफ -- hello this is ----net how may assist.
मै -- हेल्लो मै देवेश बोल रहा हु दिल्ली से ....मेरा नेट २ दिन से काम नहीं कर रहा है ।
दूसरी तरफ --- sir may i know your login id .
मै--हांजी लिखिए .......------- ।
दूसरी तरफ --- sir please stay online .

मै------- जी बिलकुल

इतनी बात के बाद जब हमें फ़ोन होल्ड करने को कहा तो.......उतनी देर मै यही सोचता रहा की ...फ़ोन के दूसरी तरफ वाले को लगता हिंदी बोलना नहीं आता ........लकिन हिंदी समझने में सक्षम है । यही सोचा था की तब तक फिर से उधर से आवाज आई ... thank u sir for stay online ......इतना कहते ही मै आपने आप को सम्भालते हुआ बोला ........do u know hindi ?....उधर से फिर आवाज़ आई की .....yes sir i know hindi ...........ये सुनने के बाद हमें ऐसा लगा जैसे मै आपने ही देश मै गैर हु ............खैर मेरे ये कहने पर की '' आप से मै हिंदी में बात कर रहा हैं और आप अंग्रेजी में ही बात किये जा रही है '' ये शब्द कहने पर वो हिंदी में बात करना शुरू कर दिया । आज हिंदी को लोग इतना नज़रंदाज़ क्यों करना शुरू कर दिया है । क्या इसलिए की आज की दिखावे की ज़िन्दगी में अंग्रेजी एक शान है । आज हिंदी आपनी ही जन्म भूमि में सहम - सहम के जी रही है आखिर क्यों ? शायद इसलिए भारतीय सभ्यता के अनुसार मेहमानों को भगवान् की तरह मानते है ..........यही हाल अंग्रेजी के साथ (यु तो भाषा किसी की विरासत नहीं ) अंग्रेजी को भारत में लोगो ने मेहमानों की तरह अपनाया है । लेकिन इस मेहमान नवाजी में हिंदी को लोग बेगाना करते जा रहे है । आज हिंदी उस दुल्हन की तरह विरह झेल रही है जैसे उसका प्रियतम उससे दूर होता जा रहा है ।

एक नज़र इधर भी

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